apka akhbarप्रदीप सिंह ।

राजनाथ सिंह भाजपा की नई पहेली बन गए हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने आज कैबिनेट मामलों की दस कमेटियों का पुनर्गठन किया। इनमें से आठ में राजनाथ सिंह का नाम नहीं था। इनमें सबसे अहम कमेटी है राजनीतिक मामलों की। पर रात होते होते इनमें से छह और में उनका नाम आ गया। यह मोदी-शाह युग में अनहोनी की तरह है।


 

भारतीय जनता पार्टी में राजनाथ सिंह सबसे निरापद व्यक्ति नजर आते हैं। बाहर वाले तो कम से कम यही मानते हैं। पर पार्टी के अंदर ऐसे लोगों की कमी नहीं है जिनकी राय इससे अलग है।भाजपा में ऐसे भी लोग हैं जिनको लगता है कि राजनाथ सिंह भाग्य के धनी हैं। यकीन न हो तो कलराज मिश्र से पूछ लीजिए। वे कभी यह मानने को तैयार नहीं हुए कि राजनाथ सिंह को जो मिला वह उनकी काबलियत से। वरिष्ठ होते हुए भी वे हर बार पिछड़ गए। उन्हें सबसे ज्यादा बुरा तब लगा जब साल 2002 में राजनाथ के नेतृत्व में हुए विधानसभा चुनाव में पार्टी पहले से तीसरे नम्बर पर आ गई और उसके कुछ दिन बाद राजनाथ केंद्रीय मंत्री बन गए।

कलराज मिश्र जिसे भाग्य कहते हैं उसे आप अवसर भी कह सकते हैं। कई बार ऐसा हुआ कि राजनाथ सिंह सही समय पर सही जगह थे। उत्तर प्रदेश में जब कल्याण सिंह ने अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ मोर्चा खोला तो वे इन दो बड़ों की लड़ाई में वाजपेयी का मोहरा बनने को सहर्ष राजी हो गए। और यह लड़ाई कल्याण सिंह बनाम राजनाथ बन गई। ईनाम में राजनाथ को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री और बाद में केंद्रीय मंत्री का पद मिला। वे राज्य के नेता से राष्ट्रीय नेता बन गए।

उनके जीवन में दूसरा अवसर आया जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने लाल कृष्ण आडवाणी को पार्टी अध्यक्ष पद से हटाने का फैसला किया। राजनाथ हमेशा से संघ के पदाधिकारियों की नजर में समन्वयवादी नेता के रूप में उपस्थित थे। जो किसी के लिए चुनौती नहीं बन सकते थे। इतना ही नहीं पद और जिम्मेदारी देने वालों के तय किए ढ़र्रे पर चलने को तैयार रहते हैं। उनके राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद एक समय ऐसा भी आया जब लगा कि उनमें और आडवाणी में खुला युद्ध हो सकता है। पर राजनाथ सिंह की यह खूबी है कि वे युद्ध के मुहाने तक जाने के बाद कदम पीछे खींच लेते हैं। जीत से ज्यादा उनका ध्यान इस बात पर होता है कि पराजय न हो। जब युद्ध होगा ही नहीं तो जय पराजय का सवाल ही कहां है। शायद उन्होंने आडवाणी, कल्याण सिंह, शंकर सिंह वाघेला और उमा भारती के हश्र से सबक लिया कि धागे को इतना मत खींचो कि वह टूट जाय।

उनके विरोधी उनके इस स्वभाव को उनकी कमजोरी बताते हैं और कहते हैं कि

राजनाथ डरपोक हैं। वे डरपोक हों न हों लेकिन यह तो सही है कि वे अब तक सफल रहे हैं। उनकी सफलता में संघ की काफी कृपा है। दोनों बार वे राष्ट्रीय अध्यक्ष संघ की मदद से ही बने। दूसरी बार भी उनके सामने अवसर पके आम की तरह टपका। संघ की पसदं नितिन गडकरी के दूसरे कार्यकाल के लिए भाजपा नेतृत्व सहमत नहीं हुआ तो एक बार फिर उन्हें अध्यक्ष पद मिल गया। दूसरी बार अध्यक्ष पद मिलने के बाद पहली बार राजनाथ सिंह को लगा कि अब वे प्रधानमंत्री पद की दावेदारी में आ गए हैं।

पर उनके सामने नरेन्द्र मोदी पहाड़ की तरह खड़े हो गए। उस समय मोदी और आडवाणी की लड़ाई में उन्होंने आडवाणी को निपटा कर पुराना हिसाब बराबर करने कै फैसला लिया। इसके लिए उन्हें मोदी के साथ की जरूरत थी। मोदी को भी उस समय उनके साथ की जरूरत थी। यह दो जरूरतमंदों की दोस्ती थी। राजनाथ सिंह को पता था कि वे चाहें भी तो मोदी को रोक नहीं पाएँगे। इसलिए वे साथ हो गए। राजनाथ सिंह और संघ ने जयपुर में जो देखा उससे उन्हें पक्का हो गया था कि मोदी अब किसी के रोके रुकने वाले नहीं हैं। हुआ यह कि गुजरात की तत्कालीन राज्यपाल कमला बेनीवाल की पोती की जयपुर में शादी थी। मोदी को भी न्यौता था। मोदी ने जाने से पहले जयपुर में पार्टी के तीन चार लोगों को फोन किया कि वे साथ चलें क्योंकि वहां ज्यादातर कांग्रेसी होंगे और उनके पहचान वाले कम होंगे। मोदी वहां पहुंचे और वर वधू को आशीर्वाद देने स्टेज की ओर बढ़ने लगे तो कई लोगों ने देखा। मोदी मोदी की कुछ आवाज हुई और कुछ ही मिनटों में सब तरफ से मोदी मोदी का स्वर गूंजने लगा। मोदी खुद भी चौंक गए।

उसके बाद राजनाथ ने देखा कि पार्टी की संसदीय बोर्ड की बैठक में मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने का प्रस्ताव आया तो मुखर विरोध सिर्फ सुषमा स्वराज ने किया। सुषमा ने चेतावनी देते हुए कहा कि ‘सब पछताओगे। लिखो मेरा डिसेन्ट नोट लिखो। मेरा विरोध लिखित में होना चाहिए।‘ उस समय राजनाथ डिगे नहीं। उन्हें लगा अभी मोदी के साथ खड़े होकर बाकी को निपटा दो। मोदी को चुनाव के बाद देखेंगे। पर 2014 के चुनाव नतीजे से राजनाथ को निराशा हुई। मोदी ने उस साथ का मान रखा और उन्हें सरकार में नम्बर दो दर्जा दिया। पर विश्वास नहीं किया।

पांच साल तक राजनाथ को यह दर्द सालता रहा कि बाजी उनके हाथ से निकल गई। सरकार बनने के बाद उनके पुत्र के बारे में खबर आई तो उन्होंने प्रधानमंत्री से मिलकर नाराजगी जताई। साथ ही इस तरह की खबर उनके करीबी लोगों से मीडिया में आई कि मंत्रिमंडल के सदस्य ने यह बात फैलाई। जो कि सही नहीं था। यह बात प्रधानमंत्री को भी पता चल गई। उसके बाद समय समय पर वे कुछ न कुछ ऐसा बोलते करते रहे जिससे सरकार और खासतौर से प्रधानमंत्री असहज स्थिति में आ जाएं। आखिरी बात थी इस लोकसभा चुनाव के समय की। जब उन्होंने कहा कि उत्तर प्रदेश में सपा बसपा गठबंधन से भाजपा को पंद्रह बीस सीटों को नुक्सान हो सकता है।

इस बात में कोई संदेह नहीं है कि मोदी-शाह और राजनाथ के बीच विश्वास की कमी है। राजनाथ सिंह का कांटा उन्हें एक न एक दिन निकालना ही है। उसकी शुरुआत आज हुई थी। उन्हें कैबिनेट की कई कमेटियों से बाहर रख कर। इसमें सबसे अहम बात है राजनीतिक मामलों की समिति से उन्हें बाहर करना। जो उत्तर प्रदेश जैसे राज्य का मुख्यमंत्री, दो बार पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष और कुछ दिन पहले तक देश का गृहमंत्री रहा हो, उसका इस कमेटी सेबाहर होना बड़ा संदेश देता है। वह संदेश यह कि, नेतृत्व का अब उनपर विश्वास नहीं रहा।जो बात पार्टी के बंद गलियारों में थी वह बाहर आ गई है। राजनाथ सिंह ने सुबह इसे स्वीकार कर लिया। पर शाम होते होते लगता है संघ से उनके संबंध एक बार फिर काम आए। मोदी शाह के युग में पार्टी में शायद ही कोई ऐसा फैसला हुआ जिसे चौबीस घंटे से कम समय में बदलना पड़ा हो। यह राजनाथ की सिंह की जीत है या आने वाली हार की मुनादी?

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