प्रदीप सिंह ।
बाढ़ अक्सर नदियों की धारा बदल देती है और बड़े संकट राष्ट्रों की दिशा। कोरोना वाइरस ने भारत के साथ ही दुनिया के सामने बड़ा संकट पैदा कर दिया है। अब ऐसा लगने लगा है कि मानवता इस दानव पर विजय पाने के करीब है। कुछ ही समय में यह इतिहास का हिस्सा हो जाएगा। अगली चुनौती कोराना के बाद के वर्तमान की चुनौती होगी। यह चुनौती सामाजिक और आर्थिक मोर्चे पर प्रमुख रूप से दिखाई देगी। आर्थिक क्षेत्र की बात आगे कभी। आज सामाजिक क्षेत्र के बदलाव और चुनौतियों की बात करते हैं। कोरोना के बाद का समाज पहले जैसा नहीं रहेगा ऐसा यह विश्वास के साथ कहा जा सकता है।
तो कैसा होगा कोरोना के बाद का समाज? इसके दो पहलू होंगे। एक सार्वभौमिक स्तर पर और दूसरा सार्वदेशिक यानी भारत के स्तर पर। कोरोना के बाद की दुनिया ज्यादा मानवीय होगी। इन कुछ महीनों का अनुभव भौतिक सुख साधनों, पैसे और सम्पत्ति की निस्सारता का सबक सिखा कर जाएगा। प्रकृति ने एक बार फिर बताया है कि वह देने और लेने में कोई भेदभाव नहीं करती। प्राकृतिक संसाधन सबके लिए समान रूप से उपलब्ध हैं। और बीमारी के रूप में जब लेने आती है तो अमीर-गरीब, बड़े-छोटे, ताकतवर- निर्बल और सर्वशक्तिमान- बेबस में कोई भेद नहीं करती। सब ठाट धरा रह जाएगा जब लाद चलेगा बंजारा। इस दौरान डाक्टरों-नर्सों, पैरामिडकल स्टाफ, पुलिस और सफाई कर्मचारियों को देखने की हमने एक नई दृष्टि पाई है। वैसे यह दृष्टि तो हमें प्रकृति ने जन्मजात दी थी। हम ही इसे मन के किसी कोने में गैर जरूरी चीज की तरह रखकर भूल गए थे। हममे से कितने लोग ऐसे हैं जिन्होंने अपने जीवन में कभी किसी सफाई कर्मचारी पर फूल बरसाए हों। मुझे नहीं लगता कोई होगा। दरअसल सामाजिक व्यवस्था ऐसी बन गई है कि हम हमेशा अपने से ऊपर वाले की तरफ देखते हुए ही जीवन बिता देते हैं। नीचे वाले से तो छूत की बीमारी की तरह दूर रहते हैं। छूत की एक बीमारी ने हमें एहसास करा दिया कि ये बीमारी नहीं बीमारी से हमें और हमारे परिवार को बचाने वाले लोग हैं। ये हैं तो हम हैं। भूखे को भोजन कराने की इच्छा इतने बड़े पैमाने पर कब समाज में दिखी थी? मनुष्य तो छोड़िए आवारा जानवरों की इतनी चिंता समाज के तौर पर हमने कब की थी।
पर कहते हैं न कि हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। इस संकट के समय समाज का एक विद्रूप चेहरा भी सामने आया। समाज का यह विद्रूप चेहरा तबलीगी जमात के रूप में सामने आया। ऐसा लग रहा है कि यह जमात पूरे देश को संकट में डालने पर उतारू है। सरकार और समाज इन्हें खोज रहा है ताकि इनका इलाज किया जा सके।पर ये लोग उन्हीं बचाने वालों से या छिप रहे हैं या हमला कर रहे हैं। इसमें उनका साथ आम मुसलिम समाज का एक बड़ा वर्ग और मुसलिम बुद्धिजीवी दे रहे हैं।
तबलीगी जमात के लोगों को खोजने में प्रदेश सरकारें जितने धैर्य से काम कर रही हैं वह तारीफ के काबिल है। उससे भी ज्यादा तारीफ के काबिल डाक्टर, पैरामेडिकल स्टाफ के लोग और पुलिस वाले हैं, जो न केवल उन्हें बर्दाश्त कर रहे हैं बल्कि उनका इलाज और मदद भी कर रहे हैं। मुसलिम समाज के लोगों खासतौर से उनके प्रबुद्ध और रसूख वालों को शायद इस बात का अंदाजा भी नहीं है कि उन्होंने अपने समाज के लिए कितनी बड़ी खाई खोद ली है। इस खाई को पाटने की कोशिश तो दूर वेतबलीगियों का साथ देकर इसे और चौड़ी करने में लगे हैं।
इन लोगों को तबलीगियों के आपराधिक कृत्यों पर कोई अफसोस या शर्म नहीं है। उन्हें इस बात पर एतराज है कि मीडिया में तबलीगियों से संक्रमित होने वालों की संख्या और उसका ब्यौरा क्यों दिया जा रहा है। इसके लिए मीडिया पर रोक लगाने के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका तक दायर हो गई। बॉलीबुड के सारे खान साहबान अपने भाईजानों की इन करामातों पर चुप्पी साधे हुए हैं। उनके रवैए से ऐसा लग रहा है कि वे किसी और दुनिया में रह रहे हैं और यहां क्या हो रहा है इसका उन्हें पता ही नहीं है। दुष्यंत कुमार की एक गजल को थोड़े बदलाव के साथ कहें तो `इस सिरे से उस सिरे तक सब शरीके जुर्म हैं, तबलीगी या तो अस्पताल में जमा है या फरार।‘ अफसोस की बात तो यह है कि इनके इस अपराध की सजा आगे आने वाली पीढियों को भी भुगतना होगा।
पूरे मुसलिम समाज ने शुतुरमुर्ग की तरह गर्दन रेत में घुसा ली है और सोच रहे हैं कि सचाई दरगुजर हो जाएगी। तबलीगियों के कुकृत्यों का समर्थन/बचाव और चुप्पी से हिंदुस्तान के मुसलमान देश को बता रहे हैं कि उनके लिए धर्म पहले है, देश और समाज उसके बाद। इस रवैए से पूरे देश में माहौल बना है कि यह कौम जानबूझकर इस आपदा को बढ़ा रही है। अब इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता यह कि धारणा सच है या नहीं। दिक्कत तो यह है कि वृहत्तर मुसलिम समाज की ओर से इस धारणा को तोड़ने की कोई दिखावटी कोशिश भी नहीं हो रही है। बल्कि मुसलमान बुद्धिजीवियों का एक तबका यह बताने में लगा है कि तबलीगियों के बारे में ये सारी खबरें झूठी हैं।
देश का बंटवारा धर्म के नाम पर हुआ था। बंटवाअरे के समय हुए दंगों में लाखों लोग मारे गए। उस समय दोनों समुदायों के बीच फासलाऔर बढ़ गया। आज वह फासला बड़ी खाई बन गया है। उस समय भी इसके लिए मुसलमान जिम्मेदार थे और जरिया बनी थी मुस्लिम लीग। आज भी मुसलमान जिम्मेदार हैं और जरिया बनी है तबलीगी जमात। डा. भीमराव अम्बेडकर ने आज से सात दशक पहले जो देख लिया था उसे सत्तर साल बाद भी भारत का मुसलमान सही साबित करने में लगा है। डा. अम्बेडकर ने इस्लाम की दो खामियां बताई थीं। उनका कहना था कि `इस्लाम एक संकीर्ण नगर समाज(कार्पोरेशन) है। इस्लाम का भाईचारा मानव समाज का भाईचारा नहीं है। यह भाईचारा, मुसलमानों का मुसलमानों के लिए है। जो इस नगर समाज सेबाहर हैं उनके लिए सिर्फ तिरस्कार और वैमनस्य है।‘
डा. अम्बेडकर के मुताबिक `इस्लाम की दूसरी खामी यह है कि यह एक सामाजिक स्वशासन की व्यवस्था है। इसकी निष्ठा उस देश के प्रति नहीं है जिसमें वह रह रहा है। उसकी निष्ठा अपने धर्म के प्रति है। एक सच्चा मुसलमान भारत को कभी अपनी मातृभूमि के रूप में स्वीकार नहीं कर सकता। शायद यही कारण है कि एक महान भारतीय लेकिन एक सच्चे मुसलमान के तौर पर मौलाना मोहम्मद अली ने भारत की बजाय यरुशलम में दफनाया जाना पसंद किया।‘
कोरोना के जाने के बाद जब खोया पाया का हिसाब होगा तो सबसे अहम बात होगी कि तबलीगियों और उनके समर्थकों ने समाज में आ रहे सकारात्मक बदलाव के वातावरण में नकारात्मकता का जहर घोल दिया।
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