प्रदीप सिंह ।
साधो घर में झगड़ा भारी! कांग्रेस पार्टी की अंदरूनी लड़ाई अब सड़क पर आ गई है। तेइस असंतुष्ट कांग्रेस नेताओं का समूह भले ही इनकार कर रहा हो लेकिन उनके निशाने पर नेहरू गांधी परिवार है। गांधी परिवार में भी इनका असली निशाना राहुल गांधी ही हैं। पर राहुल गांधी का कवच बनकर खड़ी सोनिया गांधी भी उनके निशाने की जद में आती जा रही हैं।
ये पुराने चावल हैं इसलिए जानते हैं कि निजी हमला उल्टा पड़ सकता है। इसलिए पहले संगठन की बात उठाई और अब नीतियों का मुद्दा उठा रहे हैं। इन नेताओं के पास खोने के लिए ज्यादा कुछ है नहीं और यही इनकी ताकत है।
दफन कर दी धर्मनिरपेक्षता
असंतुष्ट नेता तमाम ऐसी बातें बोल रहे हैं जो सोनिया गांधी को नागवार गुजरें और राहुल गांधी की नाकामियों को उजागर करें। संगठन का मुद्दा था तो पहले उन्हें डराने और फिर मनाने की कोशिश हुई। पर सवाल यह है कि इस के पीछे इरादा केवल मुद्दे को टालना था। कुछ करने का इरादा न पहले था और न अब दिख रहा है। राज्यसभा में विपक्ष के उप-नेता आनंद शर्मा ने पश्चिम बंगाल में फुरफुरा शरीफ के मौलवी अब्बास सिद्दीकी की पार्टी इंडियन सेक्युलर फ्रंट से कांग्रेस के समझौते पर सवाल उठाया। उन्होंने निशाना साधा प्रदेश प्रभारी और लोकसभा में कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी पर। कहा कांग्रेस अपने बुनियादी सिद्धातों से कैसे समझौता कर सकती है। सिद्दीकी जैसे लोगों से गठबंधन करके पार्टी साम्प्रदायिक शक्तियों से कैसे लड़ेगी। अधीर रंजन ने जवाब दिया के वे जो कुछ कर रहे हैं वह हाईकमान के आदेश पर ही कर रहे हैं।
पश्चिम बंगाल में कांग्रेस एक ऐसे नेता और दल से गठबंधन कर रही है जो धार्मिक भावनाएं भड़काने के लिए जाना जाता है। पर कोरोना के दौरान सिद्दीकी ने दुआ मांगी थी कि दस से पचास करोड़ भारतीय मर जायं। ऐसे लोगों से समझौता करके पार्टी संदेश क्या देना चाहती है? असम में तरुण गोगोई ने बदरुद्दीन अजमल की पार्टी से कभी समझौता नहीं किया और पंद्रह साल राज किया। पांच साल विपक्ष में रहते ही कांग्रेस का धैर्य टूट गया और इस चुनाव में समझौता कर लिया। साम्प्रदायिक लोगों और संगठनों को साथ लेकर साम्प्रदायिकता से लड़ने का पाखंड तो कांग्रेस ही कर सकती है। जिन पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं, वहां मुसलिम वोट अहम हैं। इसलिए जनेऊधारी शिवभक्त किसी शिव मंदिर में जाते हुए नहीं दिखे। हालांकि तमिलनाडु और केरल में ढ़ेरों और बड़े शिव मंदिर हैं। यह ओढ़ी हुई धार्मिकता और छद्म धर्मनिरपेक्षता के फरेब में अब मतदाता नहीं फंसता। सच्चाई यह है कि सोनिया की कांग्रेस नेहरूवादी धर्मनिरपेक्षता को दफन कर चुकी है।
रणनीतिक चुप्पी
असंतुष्टों के हमलों पर परिवार के लोग अभी चुप हैं। उनकी यह चुप्पी असंतुष्ट नेताओं का हौसला बढ़ा रही है। उनकी कोशिश है कि यह चुप्पी टूटे। लड़ाई खुले में आए। सोनिया गांधी को पता है कि लड़ाई खुले में आई तो उनके लिए राहुल गांधी को बचाना बहुत कठिन होगा। दरअसल यह लड़ाई अब पार्टी बचाने और राहुल गांधी का राजनीतिक करियर बचाए रखने की हो गई है। चुनाव की प्रत्येक हार सोनिया गांधी की मुश्किल बढ़ा रही है। गुजरात में पंचायत और स्थानीय निकाय चुनाव में कांग्रेस का लगभग सफाया हो गया है। चुनाव में हार जीत तो होती रहती है। यह भी सही है कि कांग्रेस के लिए चुनाव हारना अब कोई नई बात नहीं रह गई है। पर गुजरात का यह नतीजा नया संदेश दे रहा है। अभी तक कांग्रेस का इस तरह से सफाया उन राज्यों में हो रहा था जहां मजबूत क्षेत्रीय दल हैं। गुजरात में कोई तीसरी पार्टी है नहीं और भाजपा छब्बीस साल से सत्ता में है। राज्य में नरेन्द्र मोदी जैसा कद्दावर नेता भी नहीं है। क्या आपको याद है कि पहले ऐसा कभी हुआ था कि कांग्रेस कोई चुनाव हारी हो और नतीजे आने के कुछ ही घंटों में उसके नेताओं ने इस्तीफा दे दिया हो। इतना ही नहीं, वह मंजूर भी हो गया हो। पर गुजरात में हो गया। क्यों? इससे पहले कि राहुल गांधी से सवाल पूछा जाय, जवाबदेही तय हो गई और सजा दे दी गई।
नाउम्मीदी की रात हताशा का अंधेरा
इतिहास गवाह है पुत्र मोह ने कितनी बड़ी-बड़ी तबाहियां की हैं। सत्ता और पुत्र (संजय गांधी) मोह में इंदिरा गांधी ने देश में इमरजेंसी लगाई। सोनिया गांधी के पास ऐसा कोई विकल्प नहीं है। राजनीतिक पूंजी उनके पास बची नहीं है। कांग्रेस के लोग समझ गए हैं कि अब वे चुनाव नहीं जिता सकतीं। इसलिए जो लोग उनके सामने नजर नहीं उठाते थे अब परोक्ष रूप से ही सही चुनौती दे रहे हैं। सोनिया के पास अब केवल परिवार की प्रतिष्ठा की पूंजी बची है, जिसका बड़ी तेजी से क्षरण हो रहा है। राहुल गांधी इस खाते से डेबिट ही डेबिट कर रहे हैं। सोलह-सत्रह साल में वे इस खाते में कुछ क्रेडिट नहीं कर पाए हैं। राहुल कांग्रेस की ऐसी रात हैं जिसकी सुबह होने की उम्मीद नहीं लगती। कम से कम कांग्रेस के असंतुष्ट नेताओं को तो ऐसा ही लग रहा है। असंतुष्ट नेताओं की चिंता सिर्फ इसी बात को लेकर नहीं है। वे इस नतीजे पर पहुंच चुके हैं कि राहुल गांधी के रहते कांग्रेस में कोई सूरज उग भी नहीं पाएगा। जो लोग प्रिंयका गांधी से बड़ी उम्मीद लगाए हुए थे वे और ज्यादा निराश हैं। प्रियंका का सूरज तो उगने से पहले ही डूब गया। उन्हें तो जमीनी वास्तविकता का कोई इल्म ही नहीं है। वे आज भी सपनों की दुनिया से बाहर नहीं निकल पाई हैं। परिवार का हकदारी (एनटाइटलमेंट) का बुखार उतर ही नहीं रहा। भाई-बहन किसी गरीब से मिल लें, कोई छोटा सा काम (गाड़ी का शीशा साफ करना) कर दें तो उनके समर्थक उसे महान उपलब्धि मानकर उसका ढ़िंढ़ोरा पीटते हैं।
उनके लिए निंदा करना ही वीरता
इन दोनों भाई बहन की एक और बड़ी समस्या है। वे निंदा रस को वीर रस समझते हैं। मशहूर व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई ने लिखा है कि ‘निंदा कुछ लोगों की पूंजी होती है। बड़ा लम्बा चौड़ा व्यापार फैलाते हैं वे इस पूंजी से। कई लोगों की प्रतिष्ठा ही दूसरे लोगों की कलंक-कथाओं के पारायण पर आधारित होती है। बड़े रस-विभोर होकर वे जिस-तिस की सत्य-कल्पित कलंक कथा सुनाते हैं और स्वयं को पूर्ण संत समझने-समझाने की तुष्टि का अनुभव करते हैं।’ वे आगे लिखते हैं कि ‘कभी-कभी ऐसा भी होता है कि हममें जो करने की क्षमता नहीं है, वह यदि कोई और करता है तो हमारे पिलपिले अहं को धक्का लगता है, हममें हीनता और ग्लानि आती है। तब हम उसकी निंदा करके उससे अपने को अच्छा समझकर तुष्ट होते हैं।‘ राहुल और प्रियंका की राजनीति देखें तो यह भाव प्रमुखता से नजर आएगा। यही कांग्रेस की दुर्दशा का कारण बन रहा है।
(सौजन्य : दैनिक जागरण)