प्रदीप सिंह ।
विराटता देखने की आदी आँखे जब सूक्ष्म देखने लगें तो विराट व्यक्तित्व का अस्तित्व खतरे में आ जाता है। नेहरू गांधी परिवार यानी सोनिया और राहुल गांधी यानी कांग्रेस पार्टी में कुछ ऐसा ही हो रहा है। जो कल तक इस राजनीतिक राज परिवार की अदा पर झूमते थे आज उनकी भृकुटि तनी हुई है। कांग्रेस पार्टी के बचने का खतरा पैदा हो गया है। जी हां, यह असंभव सी बात संभावना के दायरे में आ गई है। मरणासन्न कांग्रेस में एक दो नहीं तेइस ऐसे लोग सामने आ गए हैं जो पार्टी के लिए बलि का बकरा बनने को तैयार हो गए हैं। अब बलि लेने के आदी लोगों के हाथ कांपने लगे हैं।
बडी खबर यह है कि कांग्रेस के तेइस नेताओं ने कार्यकारी अध्यक्ष सोनिया गांधी को अगस्त के पहले सप्ताह में जो पत्र लिखा था, उस पर वे कायम हैं। कार्यसमिति की बैठक में खत के मजमून की बजाय इन नेताओं की धृष्टता को धिक्कारने के वफादारों के समवेत घोष का इन पर कोई असर नहीं हुआ है। यह बात सोनिया गांधी की कांग्रेस के लिए नई नहीं है। शरद पवार और उनके साथियों का खुला विद्रोह, पीवी नरसिंह राव का कभी नरम कभी गरम रुख और सीताराम केसरी की अड़ने की कोशिश हम देख चुके हैं। पर ये घटनाएं सोनिया गांधी के त्याग की देवी बनने से पहले की हैं। उससे पहले कांग्रेस में सोनिया गांधी की छवि की प्राण प्रतिष्ठा नहीं हुई थी।
कांग्रेस को परिवार की पार्टी बनाने का जो अनुष्ठान इंदिरा गांधी ने 1969 में शुरू किया था उसकी पूर्णाहुति मई, 2004 में हो गई। उसके बाद के सोलह सालों में कांग्रेस में सोनिया गांधी की छवि अविनाशी हो गई। सब लोग गलत कर सकते हैं, यहां तक कि राहुल गांधी भी लेकिन सोनिया गांधी कुछ गलत नहीं कर सकतीं। पर कहते हैं न कि राजनीति में निष्ठाएं बदलने में देऱ नहीं लगती। कांग्रेस के इन तेइस नेताओं ने किसी आवेश में आकर नहीं बल्कि बहुत सोच समझकर तय किया अब से वे परिवार के नहीं संगठन के प्रति निष्ठावान रहेंगे। तेइस नेताओं ने अपने पत्र में संगठन की स्थिति को लेकर चिंता जाहिर करने के साथ ही सुधार के उपाय भी सुझाए हैं।
पत्र में लिखी गई बातें सार्वजनिक हो चुकी हैं। पत्र का आगे क्या हश्र होगा यह तो पता नहीं। पर दो बातें साफ नजर आ रही हैं। एक, ये तेइस नेता पीछे हटने को तैयार नहीं हैं। उन्हें इंतजार है कि सोनिया गांधी पत्र में उठाए गए मुद्दों पर चर्चा के लिए उन्हें बुलाएंगी। दूसरा, इस पत्र ने सोनिया गांधी की अविनाशी छवि को खंडित कर दिया है। और खंडित मूर्ति को मंदिर में रखना अशुभ माना जाता है। ये नेता सोनिया गांधी को कार्यकारी अध्यक्ष पद से हटाने की न तो बात कर रहे हैं और न ही मांग। पत्र का संदेश महज इतना है कि पुराना हटे तो नये को अवसर मिले। पत्र ने सोनिया गांधी के लिए बाहर जाने का रास्ता खोल दिया है। अब यह उन्हें तय करना है कि वे कैसे जाना चाहेंगी। वैसे उनका ही दिखाया हुआ सीताराम केसरी वाला भी रास्ता है।
ये बातें कड़वी लग सकती हैं लेकिन इनकी सचाई से इनकार नहीं किया जा सकता। इन तेइस नेताओं के इस अप्रत्याशित व्यवहार से सोनिया परिवार स्तब्ध है। नेता को जब एहसास नहीं होता कि उसके पैर के नीचे से जमीन खिसक गई है तो वह ऐसे ही किंकर्तव्यविमूढ़ नजर आता है। सोनिया गांधी को अगला कदम उठाने से पहले साल 2005 में भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष लाल कृष्ण आडवाणी के साथ जिन्ना की मजार से लौटने के बाद जो हुआ उसे याद कर लेना चाहिए। उस समय जो भाजपा नेता आडवाणी के विरोध में खड़े हुए उन सबका राजनीतिक जीवनआडवाणी ने अपने हाथ से गढ़ा था। पर उन भाजपा नेताओं ने व्यक्ति की बजाय संगठन को बचाना ज्यादा जरूरी समझा।
लोहिया के समाजवादियों का एक समय बड़ा प्रिय नारा था- सुधरो या टूटो। तो इस पत्र में राहुल गांधी के लिए भी संदेश है। सुधरो या हटो। संदेश है कि पार्टी, राहुल गांधी की अपरिपक्वता का खामियाजा अब और भुगतने के लिए तैयार नहीं है। यह भी कि अब यह खेल नहीं चलेगा कि सोनिया कार्यकारी के नाम पर अध्यक्ष पद पर काबिज रहें और राहुल गांधी पर्दे के पीछे से बिना किसी जिमेमदारी के अपनी पसंद के लोग और मुद्दे थोपते रहें।
व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई ने लिखा है कि ‘आत्म विश्वास कई तरह का होता है, धन का, बल का, विद्या का पर सबसे ऊंचा आत्मविश्वास मूर्खता का होता है। सबसे बड़ी मूर्खता है- यह विश्वास से लबालब भरे रहना कि लोग हमें वही मान रहे हैं जो हम उन्हें मनवाना चाहते हैं।‘ परिवार को इस मानसिकता से बाहर निकलना होगा। यह उनके आत्मसम्मान के लिए ही नहीं कांग्रेस के लिए भी अच्छा होगा। समय आगया है कि कांग्रेसियों को इस परिवार के बिना अपने राजनीतिक भविष्य का सपना देखने की आजादी मिले। यदि परिवार के लोग पार्टी में बने रहना चाहते हैं तो उन्हें हवाके घोड़े से उतरना होगा। सबको समान अवसर के सिद्धांत पर काम करना होगा।
इस पत्र के लिखने वालों का भविष्य तो पता नहीं। वे कितनी दूरी तक जाने को तैयार हैं यह भी कहना अभी कठिन है। पर एक संकल्प तो नजर आता है। कार्यसमित की बैठक में बहुत कुछ भला बुरा सुनने और उसके बाद पार्टी प्रवक्ता की धमकी वाले अंदाज में दिए बयान के बावजूद अभी तक कोई पीछे नहीं हटा है। इन नेताओं को पार्टी के इस संकट में उसे उबारने का अवसर नजर आ रहा है। यह आशावादिता के लक्षण हैं। इसके विपरीत राहुल गांधी को इस अवसर में खतरा नजर आ रहा है। यह निराशा के लक्षण हैं। निराश नेतृत्व किसी संगठन को सुनहरे भविष्य की राह पर नहीं ले जा सकता।
सोनिया गांधी की राजनीतिक यात्रा को दो कालखंडों में बांटा जा सकता है। पहला 1998 से 2004 तक और दूसरा मई,2004 से अभी तक का।उनके नेतृत्व में पार्टी दो चुनाव 1998 और 1999 हारी और दो 2004 और 2009 जीती। पिछले दो लोकसभा चुनाव की हार राहुल गांधी के खाते में जाती है। आप चाहें तो इसे परिवार की सामूहिक जिम्मेदारी मान लें। तो छह में से सिर्फ दो लोकसभा चुनावों में जीत वह भी स्पष्ट बहुमत के आंकड़े से बहुत दूर। छह में दो यानी तैंतीस फीसदी। आजकल तो इतने नम्बर पर पास भी नहीं होते।सोनिया कांग्रेस को उसकी एक और ख्याति के लिए याद किया जाएगा। देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस हिंदू विरोधी और भ्रष्टाचार का पर्याय बनाने के लिए।अब सोनिया गांधी की राजनीतिक विदाई का समय आ गया है। उन्हें चाहिए कि वे अध्यक्ष पद ही नहीं बेटे को हर हाल में अध्यक्षी सौंपने की जिद भी छोड़ें। आगे का फैसला पार्टी और राहुल गांधी पर छोड़े दें।