apka akhbarप्रदीप सिंह ।

खबरों की दुनिया में कभी कभी ऐसा भी होता है कि नई खबर को बड़ी खबर से  ज्यादा अहमियत मिल जाती है। सोमवार को कुछ ऐसा ही हुआ। जेपी नड्डा के भाजपा का कार्यकारी अध्यक्ष बनने की नई खबर, अमित शाह के मंत्री पद के साथ साथ भाजपा अध्यक्ष बने रहने की बड़ी खबर थोड़ा पीछे चली गई।


 

किसी और पार्टी में इस तरह की नियुक्तियों की खबर व्यक्ति विशेष की कामयाबी नाकामी तक सीमित रहती हैं। भाजपा में अब तक ऐसा नहीं रहा है। साल 1951 में पहले जनसंघ और फिर 1980 में भाजपा बनने से अब तक भाजपा में ऐसा कभी नहीं हुआ कि पार्टी अध्यक्ष और मंत्री पद पर एक ही व्यक्ति तो छोड़िए संसदीय दल का नेता और अध्यक्ष पद पर एक ही व्यक्ति रहा हो। एक छोटे से अंतराल के अपवाद को छोड़कर।

खबर यह नहीं कि जेपी नड्डा भाजपा के कार्यकारी अध्यक्ष बन गए हैं।। खबर यह है वे अमित शाह के सरकार में जाने के बाद भी पार्टी अध्यक्ष नहीं बन पाए। उससे बड़ी खबर यह है कि अमित शाह देश के गृहमंत्री होने के साथ साथ पार्टी अध्यक्ष भी बने रहेंगे। अमित शाह वह करने में सफल हुए हैं जो तमाम कोशिशों के बावजूद लाल कृष्ण आडवाणी भी नहीं कर पाए।

किसी को यह पता नहीं है कि यह व्यवस्था स्थाई है या संगठनात्मक चुनावों तक के लिए। पर ऐसा लगता नहीं कि नड्डा अध्यक्ष बनाए जाएंगे। स्वास्थ्य मंत्रालय में उनके काम से प्रधानमंत्री खुश नहीं थे। उत्तर प्रदेश के प्रभारी के तौर भी उनकी आराम तलबी चर्चा का विषय रही। ऐसा लग रहा था कि शायद उन्हें कार्यकारी अध्यक्ष भी न बनाया जाय। घोषणा से दो तीन दिन पहले तक उन्हें न तो कोई अंदाजा था और न ही उम्मीद रह गई थी। पर भाजपा में आजकल जो लगता है वह होता नहीं।

भाजपा अध्यक्ष के रूप में अमित शाह ने जो और जिस तरह से काम किया है,  उसके बाद किसी के लिए भी उस पद पर बैठना कांटों का ताज ही होगा। ऐसा लगता नहीं कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी चाहेंगे कि अमित शाह ने जो संगठन खड़ा किया है वह इतनी जल्दी बिखरने लगे। भाजपा का अगला अध्यक्ष जो भी बनेगा वह कम उम्र का ही होगा। मोदी शाह केंद्र से राज्य स्तर तक नेतृत्व में पीढ़ी परिवर्तन कर रहे हैं। नड्डा पार्टी का भविष्य नहीं हैं। वे वर्तमान भी कब तक रहेंगे यह कहना कठिन है। इतनी बात तय है कि नड्डा का कार्यकारी अध्यक्ष बननाकामचलाऊ व्यवस्था का हिस्सा है। वैसे बताते चलें कि भाजपा के संविधान में कार्यकारी अध्यक्ष का कोई प्रावधान नहीं है।

भाजपा संसदीय दल की बैठक में नड्डा को कार्यकारी अध्यक्ष बनाने के फैसला हुआ। फैसले की घोषणा राजनाथ सिंह ने की। यह बात एक पुरानी घटना की याद दिलाती है। हालांकि दोनों में पूरी समानता नहीं है। इंदिरा गांधी राजीव गांधी को कांग्रेस महासचिव बनना चाहती थीं। खुद अध्यक्ष थीं। चाहती तो खुद ही नियुक्त कर सकती थीं। पर उन्होंने पहले कमलापति त्रिपाठी को कार्यकारी अध्यक्ष( कांग्रेस के भी संविधान में इस पद का प्रावधान नहीं था) बनाया। उसके बाद कमलापति त्रिपाठी ने राजीव को महामंत्री बनाया। उसके कुछ समय बाद कमलापति जी पद से हटा दिए गए। जिस तरह कमलापति उस समय इस्तेमाल हुए थे उसी तरह राजनाथ सिंह सत्रह जून को इस्तेमाल हुए।

पर असली मुददा तो अमित शाह के दो पदों पर बने रहने का है। साल 1993 की बात है। लाल कृष्ण आडवाणी भी यही चाहते थे। 1984 में दो सीटों पर सिमटने के बाद पार्टी ने अटल बिहारी वाजपेयी को हटाकर लाल कृष्ण आडवाणी को पार्टी की कमान सौंप दी थी। अयोध्या आंदोलन से आडवाणी जननेता बनकर उभरे। वीपी सिंह की सरकार गिरने के बाद 1990 और फिर 1991 केलोकसभा चुनाव के बाद कुछ महीने तक आडवाणी ही लोकसभा में विपक्ष के नेता रहे, वाजपेयी नहीं। वाजपेयी उस हाशिए पर थे। पार्टी के ज्यादातर नेताओं ने उनके यहां जाना छोड़ दिया था। 1991 में डा. मुरली मनोहर जोशी पार्टी अध्यक्ष बने। दो साल का कार्यकाल पूरा होने के बाद उन्हें दूसरा कार्यकाल देने के लिए पार्टी तैयार नहीं थी और संघ भी थोड़े अनमने मन से राजी हो गया था।

उस समय आडवाणी के करीबी लोग उन्हें भावी प्रधानमंत्री के रूप में देख रहे थे। एक मुहिम चली कि लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष और पार्टी अध्यक्ष पद एक ही व्यक्ति( मतलब आडवाणी) के पास रहे। आडवाणी 1990 से 1991 तक कुछ महीनों के लिए दोनों पदों पर रह चुके थे। अटल जी उन दिनों बहुत दुखी रहा करते थे। उधर, दूसरी ओर कुछ लोगों जिनमें निखिल चक्रवर्ती और प्रभाष जोशी भी शामिल थे, ने एक मुहिम चलाई। प्रस्ताव था कि भाजपा, जनता दल और कांग्रेस से अच्छे लोग निकलें और एक नई पार्टी बने, जिसके अध्यक्ष अटल जी हों। अटल जी इसके लिए तैयार नहीं हुए और मुहिम इसके साथ ही खत्म हो गई। 1993 में बंगलुरु में भाजपा की कार्यकारिणी की बैठक थी। उसमें नये अध्यक्ष का फैसला होना था। उससे तीन चार दिन पहले अटल जी ने एक इंटरव्यू में मुझसे कहा था कि ‘पार्टी में बड़े पदों पर बैठे लोगों की महत्वाकांक्षा पार्टी को गलत दिशा में ले जा रही है।‘ जाहिर तौर पर उनका इशारा आडवाणी और उनके साथियों की ओर था।

आडवाणी की इस मुहिम को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का समर्थन नहीं मिला। कार्यकारिणी की बैठक से करीब हफ्ते भर पहले आडवाणी एक दिन अचानक  वाजपेयी की घर पहुंचे। उनसे अनुरोध किया कि आप राष्ट्रीय अध्यक्ष बन जाइए। वाजपेयी समझ रहे थे कि आडवाणी दरअसल डा. जोशी के दोबारा अध्यक्ष बनने की सारी संभावनाएं खत्म करना चाहते हैं। वाजपेयी ने इनकार कर दिया। मजबूरी में आडवाणी को लोकसभा में नेता पद छोड़ना पड़ा। उसके बाद ही वाजपेयी नेता प्रतिपक्ष बने।

अयोध्या आंदोलन के नेता आडवाणी 1993 में भाजपा के सबसे ताकतवर नेता और संघ के परमप्रिय थे। इसके बावजूद दो पदों पर नहीं रह सके। अमित शाह की ताकत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जो आडवाणी सारी ताकत लगाकर हासिल नहीं कर पाए, वह शाह को आसानी से मिल गाया। वाजपेयी-आडवाणी की जोड़ी की बड़ी चर्चा होती है। यह सही है कि दोनों में बहुत अच्छा तालमेल था। पर जिस तरह का आपसी भरोसा मोदी-अमित शाह के बीच बीच है वैसा अटल-आडवाणी के बीच नहीं था।

राजनाथ सिंह भले ही कैबिनेट की सुरक्षा मामलों की समिति में बने रहें। लोकसभा में उपनेता रहें और मोदी के बगल में बैठें। पर भाजपा के लोगों और आम जनता को इस बात को लेकर कोई गलतफहमी नहीं है कि नम्बर दो कौन है। मोदी और अमित शाह के बीच की केमिस्ट्री राजनीति शास्त्र, समाज शास्त्र और व्यवहार विज्ञान के तमाम सिद्धांतों को झुठलाती है। नम्बर एक और नम्बर दो के बीच अच्छे तालमेल के उदाहरण तो बहुत मिल जाएंगे पर ऐसा परस्पर विश्वास का उदाहरण खोजना कठिन है।

इस बारे में भी किसी को कोई गलतफहमी नहीं होना चाहिए कि नड्डा की भूमिका अमित शाह के सहायक से ज्यादा कुछ होगी। संगठन के फैसले अब भी अमित शाह ही लेंगे। नड्डा केवल उसे लागू करेंगे। अमित शाह की तरह नड्डा प्रधानमंत्री को नहीं रिपोर्ट नहीं करेंगे। यही बात उनकी हैसियत तय करती है।