प्रदीप सिंह।
परिवर्तन हमेशा कुछ मिथकों को स्थापित करता है तो कुछ को तोड़ता है। पश्चिम बंगाल की राजनीति में दो मिथक टूटते नजर आ रहे हैं। पहला, बंगाल का भद्रलोक जिस पार्टी के साथ होगा सत्ता उसे ही मिलेगी। दूसरा, राज्य में दलित-मुसलिम गठजोड़ स्थाई रूप से स्थापित हो गया है।
परिवर्तन की यह प्रकिया 2019 के लोकसभा चुनाव के समय से ही शुरू हो गई थी। पिछले दो सालों में यह और तेज हुई है। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की बौखलाहट की यही वजह है। उन्हें समझ में तो आ रहा है कि क्या हो रहा है लेकिन यह नहीं सूझ रहा है कि इसे रोकें कैसे। भाजपा ने बंगाल की राजनीति को बदल दिया है। यह बदलाव विधानसभा चुनाव की हार जीत से परे जाता है।
भद्रलोक का टूटता वर्चस्व
बंगाल के भद्रलोक यानी संभ्रांत वर्ग का न केवल समाज पर बल्कि राजनीति पर भी वर्चस्व रहा है। संख्या में बहुत ही मामूली होने के बावजूद यह वर्ग पार्टियों और सरकारों की दशा और दिशा तय करता रहा है। साल 2014 लोकसभा, 2016 विधानसभा और 2019 के लोकसभा चुनाव में यह वर्ग भाजपा के खिलाफ और तृणमूल कांग्रेस के साथ खड़ा रहा। भाजपा 2014 और 2016 में इसके तिलिस्म को नहीं तोड़ पाई। पर साल 2019 के लोकसभा चुनाव में तोड़ दिया। भद्रलोक के समर्थन के बिना भाजपा ने राज्य की बयालीस में से अट्ठारह लोकसभा सीटें जीत लीं। भाजपा की इस कामयाबी में सबसे बड़ी भूमिका रही पिछड़े, दलित और आदिवासी समुदाय की। पहली बार अघोषित रूप से बना दलित-मुसलिम गठजोड़ टूट गया। मुसलमान टूट कर ममता के साथ चला गया तो पिछड़ा, दलित, आदिवासी भाजपा के साथ खड़ा हो गया।
मुगालते में रहीं ममता
ममता बनर्जी लोकसभा चुनाव की हार के निहितार्थ को समझ नहीं पाईं। वह मुगालते में रहीं। उन्हें लगा लोकसभा चुनाव के कारण मोदी के नाम पर भाजपा को वोट मिल गए। चुनाव के बाद कई जनसभाओं में उन्होंने कहा कि ‘मेरा क्या गलती था? भाजपा को क्यों जिता दिया?‘ उन्होंने मान लिया कि यह एक तात्कालिक मामला था। विधानसभा चुनाव में फिर सब पहले जैसा हो जाएगा। दरअसल यह दलित-मुसलिम गठजोड़ ही था जिसने वाम मोर्चे को तीन दशक से ज्यादा समय तक सत्ता में रखा। ममता बनर्जी ने 2011 में इसे तोड़ा नहीं बल्कि अपने पाले में खींच लिया। इस कामयाबी से ममता का हौसला बढ़ गया। उन्हें लगा कि अब वाम मोर्चा और कांग्रेस को मटियामेट करने का समय है। 2011 के चुनाव में वे मतुआ सम्प्रदाय की आध्यात्मिक गुरू बोरो मां (बड़ी मां) की शरण में गईं और उन्हें उनका आशीर्वाद मिल गया। बड़ी मां के बेटे मंजुल कृष्ण ठाकुर को टिकट दिया और राज्यमंत्री बनाया। ममता इधर से निश्चिंत हो गईं।
हिंदू विरोधी छवि
दरअसल 2014 के लोकसभा चुनाव में इस परिवार में फूट पड़ गई। मृदुल ठाकुर और उनके बेटे भाजपा में चले गए। आपसी मतभेद के कारण समुदाय के संगठन मतुआ महासंघ का राजनीतिक प्रभाव कम हो गया। सत्ता में आने के बाद ममता को लगा कि तीस फीसदी मुसलिम आबादी को पूरी तरह अपनी तरफ कर लिया तो वाम दलों और कांग्रेस का कांटा हमेशा के लिए साफ हो जाएगा। वे मानकर चल रही थीं कि भाजपा बंगाल में कभी पैर नहीं जमा पाएगी। यह उनकी भारी भूल साबित हुई। मुसलिम समुदाय को कांग्रेस और वाम दलों से अलग करने के चक्कर में उन्होंने तुष्टीकरण की सारी सीमाएं लांघ दीं। बात केवल मुसलमानों को सहूलियत देने की होती तो कोई समस्या नहीं थी। मुसलमानों को खुश करने के लिए वे हिंदू विरोधी बन गईं। कहने लगीं कि मुसलमान उनके लिए दुधारू गाय हैं जिनकी लात खाने को भी तैयार हैं।
पिछड़े, दलित और आदिवासी
साल 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव के बीच भाजपा ने ममता के पैरों के नीचे की जमीन खिसका दी। ममता दीदी के लिए दुष्यंत कुमार का एक शेर है- ‘तुम्हारे पांव के नीचे कोई जमीन नहीं, कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यकीन नहीं।‘ लोकनीति-सीएसडीए के नेशनल इलेक्शन सर्वे के मुताबिक इन पांच सालों में पिछड़ा वर्ग में भाजपा का समर्थन इक्कीस से बढ़कर पैंसठ फीसदी, दलितों में बीस से बढ़कर इकसठ फीसदी और आदिवासियों में ग्यारह से बढ़कर अट्ठावन फीसदी हो गया। तृणमूल कांग्रेस को इन तीनों समुदायों ने बड़ा झटका दिया। ममता 2019 के लोकसभा चुनाव में बाइस सीटें जीत पाईं उसमें सबसे बड़ी भूमिका रही मुसलिम मतदाताओं की।
साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण ने बचाई लाज
मुसलिम मतदाताओं में तृणमूल का समर्थन चालीस से बढ़कर सत्तर फीसदी हो गया। इस साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण ने ही ममता की लाज बचा ली। हारवर्ड इन्सटीट्यूट ऑफ लीगल स्टडीज ऐंड रीसर्च के अयान गुहा लिखते हैं कि ‘पश्चिम बंगाल में जाति की राजनीति के प्रति रुझान 2009 से ही शुरू हो गया था। उसके साथ ही वाम दलों का पराभव हुआ। पर बहुत से जानकार इसे मानने को तैयार नहीं हुए। उनका कहना था कि भद्रलोक का वर्चस्व ऐसा होने नहीं देगा। वे जाति की राजनीति को अप्रासंगिक बना देंगे। ममता बनर्जी ने वामदलों की इस नीति को अपना लिया और ग्रामीण इलाकों में विरोध की आवाज को निर्दयता से दबाकर रखा। सामाजिक शक्ति पर राजनीतिक शक्ति हावी रही।‘
कौन पार लगाएगा भाजपा की नैया
इस बीच दो और बड़े बदलाव हुए। बंगाल की राजनीति में भाजपा और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का प्रवेश हो गया। सूबे के पिछड़े और खासतौर से दलित व आदिवासियों को आवाज मिल गई। मतुआ महासंघ के साथ ही वृहत्तर दलित और आदिवासी समाज भाजपा से जुड़ गया। मतुआ समुदाय की आधिकारिक तौर पर आबादी करीब पौने दो करोड़ है। पर समुदाय के लोग कहते हैं कि वास्तविक आबादी (असम को मिलाकर) करीब चार करोड़ है। उनकी मांगें और शिकायतें तो बहुत सी हैं लेकिन नागरिकता की मांग सबसे ऊपर और सबसे पुरानी है। 2019 में फिर से लोकसभा चुनाव जीतने के बाद भाजपा नागरिकता संशोधन कानून लाई और एनआरसी लागू करने की घोषणा की। ममता ने दोनों का विरोध किया। इससे मतुआ समुदाय को मोदी के रूप में अपना तारनहार दिखने लगा। इन तीनों समुदायों का समर्थन भाजपा को 2019 से ज्यादा मिलने वाला है।
ममता का यू टर्न
बाजी हाथ से निकलते देख ममता बनर्जी को अचानक हिंदू याद आए। वे चुनावी सभा में चंडीपाठ करने और मंदिर दर्शन के लिए जाने लगीं। पर इसके लिए देर हो चुकी है। ममता के दस साल के राज में हिंदुओं में एक धारणा बनी है कि सरकार उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक समझती है। सरस्वती पूजा पर रोक, दुर्गा मूर्ति विसर्जन न होने देना, हुनमान जयंती का सरकारी विरोध और जय श्रीराम के नारे प्रति गजब की नफरत ने हिंदुओं की इस धारणा को पुष्ट कर दिया। बंगाल में जयश्रीराम का नारा ममता विरोध का नारा बन गया है। यही नारा ममता की हार का कारण बनेगा ऐसा साफ नजर आ रहा है।
( लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं। सौजन्य : दैनिक जागरण)