apka akhbarप्रदीप सिंह। 
राष्ट्रीय जनता दल के युवा नेता तेजस्वी यादव पर पूरे विपक्ष की निगाहें थीं। बिहार विधानसभा चुनाव के एग्जिट पोल के नतीजे के बाद बहुत से लोगों की बांछें खिली हुई थीं। इकत्तीस साल के एक लड़के ने मोदी को मात दे दी। रातों रात तेजस्वी को मोदी का विकल्प घोषित करने की तैयारी थी। 

जी हां, सही सुना आपने। बिहार में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की हार मोदी की हार होती और जीत तो जाहिर है कि नीतीश कुमार की है। अपने देश में पिछले सात सालों से कुछ ऐसा ही विमर्श चल रहा है।

मोदी सतत विलेन

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तेजस्वी यादव का भाग्य अच्छा है कि वे चने के झाड़ पर चढ़ने से बच गए। हिंदी सिनेमा में जैसे हीरो के हाथों विलेन को पिटते देख दर्शक खुश होते हैं। वैसे ही बहुत से लोगों की नजर में मोदी सतत विलेन हैं। उन्हें जो भी मात दे दे वह उनका हीरो। वह कौन है, कैसा है, उसकी राजनीतिक हैसियत क्या है, इससे कोई मतलब नहीं। एक समय अरविंद केजरीवाल जो किसी नगर निगम के भी सदस्य नहीं थे, मोदी के चैलेंजर बताए जाने लगे। कन्हैया कुमार ने जेएनयू में एक भाषण दिया और मुनादी हो गई कि मोदी का विकल्प आ गया। वही कन्हैया आजकल मोदी का गुणगान कर रहे हैं। राहुल गांधी तो खैर चौबीस घंटे और तीन सौ पैंसठ दिन मोदी के चैलेंजर हैं। यह अलग बात है कि उन्हें अपनी ही पार्टी में चैलेन्ज किया जा रहा है।

कमजोर नस

Exit polls predict Tejashwi Yadav as CM, Mahagathbandhan government in Bihar | Bihar News | Zee News

पर बात तेजस्वी यादव की है। पिछले कुछ सालों  में हमने दो तेजस्वी यादव देखे। एक नामी गिरामी और अमीर पिता का बिगड़ैल बेटा। जिसे विरासत में पिता का राजनीतिक जनाधार मिल गया है। और उसे लग रहा है कि सारी दुनिया उसकी मुट्ठी में है। जो कहीं भी किसी को भी अपमानित कर सकता है। जिसे पता नहीं है कि संयम किस चिड़िया का नाम है। जिसके लिए राजनीति शौक भर है। दूसरा तेजस्वी हमने देखा करीब दो महीने के चुनाव प्रचार के दौरान। गंभीर, तहजीब से पेश आने वाला, मुद्दों को समझने और उन पर टिकने वाला। जो राजनीति के प्रति संजीदा है और जिसे मालूम है कि उसकी कमजोरी और ताकत क्या है। इस तेजस्वी ने सबको चौंकाया। सबसे ज्यादा उनके राजनीतिक विरोधियों को। यह तेजस्वी अपने पिता की छाया से बाहर निकल आया है। इतना ही नहीं वह अपने पिता की राजनीतिक संस्कृति की विरासत (जनाधार नहीं) से दूर जाने को तैयार है। राजद के प्रचार पोस्टर से लालू यादव की फोटो हटाने का फैसला आसान नहीं रहा होगा। आखिर लालू के बिना राजद है क्या। तेजस्वी ने यह भी संकेत दिया कि वह अपनी पार्टी की कार्य संस्कृति बदलना चाहते हैं। उन्होंने संकेत दिया कि उनको इस बात का एहसास है कि यह कार्य संस्कृति जो कभी पार्टी की ताकत थी अब कमजोरी बन गई है। तेजस्वी की हार के आप सौ कारण गिना सकते हैं। पर मेरी नजर में इस कार्य संस्कृति का भूत भागने का नाम नहीं ले रहा।  उनका वोटर जैसे ही हुंकार भरता है बाकी लोग दूर भाग जाते हैं। उनके राजनीतिक विरोधियों ने इसी कमजोर नस को दबाया।

सोचने का समय

तेजस्वी ने इस चुनाव में जो हासिल किया है वह पिता की विरासत की राजनीति से और अपने बदले स्वरूप से। अब उन्हें आरोप प्रत्यारोप के जंजाल से निकल कर सोचना चाहिए कि पंद्रह साल की सरकार विरोधी लहर और मुख्य मंत्री नीतीश कुमार की निजी अलोकप्रियता और चिराग पासवान की परोक्ष मदद के बावजूद वे क्यों पिछड़ गए। किसी राजनीति दल के लिए, जिसके पास इतना बड़ा कोर वोट हो, यह परिस्थिति टेलर मेड थी। फिर भी वे विजय रेखा पार नहीं कर पाए। बहुत सी बातें उनके वश में नहीं हैं। जैसे कांग्रेस का प्रदर्शन और असदुद्दीन की पार्टी के प्रति मुसलिम मतदाताओं को बढ़ता रुझान। इसलिए उस पर उनको समय नहीं गंवाना चाहिए। जो कर सकते हैं वह करना चाहिए।

व्यावहारिकता जरूरी

जो लोग उनकी प्रशंसा के गीत गा रहे हैं कि एक इकत्तीस साल का लड़का पचहत्तर सीटें ले आया। वे दरअसल उन्हें चने के झाड़ पर चढ़ा रहे हैं। राजनीति बहुत निष्ठुर होती है। उसमें भावना की जगह नहीं होती। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की बात को मैंने कई बार उद्धृत किया है। एक बार फिर कर रहा हूं। दिनकर ने लिखा है- ‘निष्ठुरता की सीपी में राजनीति का मोती पलता है।‘ राजनीति फैसलों में भावना की बजाय व्यावहारिकता होनी चाहिए। अपनी ताकत को समझिए और अपने विरोधी की ताकत को कभी कम मत आंकिए।

मुसलिम जनाधार

Tejashwi Yadav greeting Muslims

तेजस्वी की ताकत क्या है? उनके पिता का बनाया यादव मुसलिम जनाधार। यादवों को तेजस्वी में अपना राजनीतिक भविष्य नजर आ रहा है। मुसलमानों को अब बिहार में राजद को वोट देने की आदत सी हो गई है। पर ओवैसी की पांच सीटें खतरे की घंटी हैं। बात पांच सीटों की नहीं है। बात यह है कि राजद के उम्मीदवार के होते हुए मुसलमानों ने ओवेसी की पार्टी को चुना। इसका संकेत साफ है कि बिहार के मुसलमान मतदाता को राजद के विकल्प से गुरेज नहीं है। उनकी संख्या भले ही अभी कम हो। उसकी एक ही वजह है, वह ऐसी पार्टी के साथ रहना और वोट देना चाहता है जो भाजपा को हराए, न कि उससे हारे। सीटों और वोट का अंतर कुछ भी हो नतीजा तो यही है कि महागठबंधन उस राजग से हार गया जिसमें भाजपा सबसे बड़ी पार्टी है। मुसलमान वोट के थोड़ा भी खिसकने का नतीजा क्या होता है यह राजद के लोग 2010 में देख चुके हैं।
जब मुसलमानों के एक वर्ग ने भाजपा के साथ होने के बावजूद नीतीश कुमार को वोट दिया। राजद बाइस सीटों पर सिमट गया।

इसी गम्भीरता से पांच साल डटना होगा

तो तेजस्वी की असली राजनीतिक अग्नि परीक्षा अगले पांच साल में होनी है। उन्हें चुनाव प्रचार जैसी गंभीरता और समर्पण भाव से पांच साल तक मैदान में डटे रहना है। अपने कोर वोट को बचाकर रखना है। इसके बाद जीतने के लिए जरूरी है कि मुसलिम-यादव में कुछ जुड़े। उनके पास केक तो है पर आइंसिंग नहीं है। इसके बिना मुख्यमंत्री की कुर्सी उनसे दूर ही रहेगी। न केवल मुख्यमंत्री की कुर्सी दूर रहेगी बल्कि पचहत्तर सीटों की कमाई भी अकारथ चली जाएगी। क्योंकि पूंजी बढ़ाने के लिए जरूरी है कि पहले से जमा पूंजी को बचाकर रखा जाय। कैसी विडम्बना है कि जब नीतीश कुमार की राजनीतिक पारी का आखिरी दौर शुरू हुआ है उसी समय तेजस्वी यादव की वास्तविक पहली पारी शुरू हो रही है। वे इस आग में तपकर कुंदन भी बन सकते हैं और राख भी। चुनाव तेजस्वी को ही करना है।