प्रदीप सिंह।

किसान आंदोलन अब उस मुकाम पर पहुंचता दिख रहा है जहां से आगे के सारे रास्ते बंद हैं। किसानों का अब तक का रुख है कि वे सरकार की मानेंगे नहीं और सुप्रीम कोर्ट की सुनेंगे नहीं। आंदोलनकारियों की मांग मानने का मतलब यह होगा कि बलपूर्वक और असंवैधानिक तरीकों से अपनी मांग पूरी करवाई जा सकती है। सरकार की नीतियों के विरोध से शुरू हुए आंदोलन ने धीरे धीरे राजनीतिक शक्ल अख्तियार कर ली है। सरकार के लिए यह अब सुरक्षा और कानून व्यवस्था की भी समस्या बनती जा रही है, खासतौर से गणतंत्र दिवस की समारोह के करीब होने के कारण।


बात उसकी जो इन कानूनों में नहीं है

आंदोलन करने वाले किसान संगठन जो कह रहे हैं उसका निष्कर्ष यह है कि उन्हें सरकार की नीति (तीन कानूनों) पर तो बात ही नहीं करनी है। वे सरकार की नीयत पर सवाल उठा रहे हैं। जो बात इन तीन कानूनों में नहीं है उसकी बात हो रही है। मसलन, सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की व्यवस्था खत्म करना चाहती है, मंडियां बंद कर देगी, किसानों को कारपोरेट के हाथों लुटने के लिए धकेल देगी और कारपोरेट उनकी जमीन हड़प लेंगे। अब सरकार कोई भी हो वह नीतियों पर तो बात कर सकती है उनमें सुधार भी कर सकती है। पर नीयत पर सवाल के पीछे कोई तार्किक आधार तो है नहीं। यह भावनात्मक मुद्दा है जिसका एकमात्र आधार आशंकाएं हैं। इस आशंका शब्द में से आ हटा दीजिए को केवल शंका बचती है। वही किसानों के हाथ की लाठी है। अब शंका का इलाज तो हकीम लुक्मान के पास भी नहीं था। फिर भी सरकार और अब सुप्रीम कोर्ट की बनाई कमेटी इस असंभव को संभव बनाने की कोशिश कर रही है।

ये बात न वो बात

सुप्रीम कोर्ट की बनाई कमेटी की तो शुरुआत ही शंका से हुई है। सुप्रीम कोर्ट ने जिस दिन कमेटी बनाई किसान संघों के चार वरिष्ठ वकील अदालत से गायब हो गए। जब कमेटी बन गई तो किसान संघों ने कमेटी की पहली बैठक से पहले ही मुनादी कर दी कि यह कमेटी तो हमारे खिलाफ रिपोर्ट देगी। चार सदस्यों में से एक भूपिंदर सिंह मान को तो इतनी धमकियां मिलीं कि उन्होंने कमेटी से तौबा कर ली। कमेटी के जो सदस्य हैं उनकी प्रोफेशनल ईमानदारी और निष्ठा पर सवाल नहीं उठाया जा सकता है फिर भी उठाया जा रहा है। ध्यान रहे किसान संगठनों के वकीलों की फौज में से किसी ने अपनी ओर से कोई नाम नहीं सुझाया कि यदि अदालत कमेटी बना ही रही है तो हमारी ओर से ये सदस्य होंगे। कुल मिलाकर मुद्दा ये है कि ये बात न वो बात खूंटा तो यहीं गड़ेगा।

आंदोलन के समर्थन में दो वर्ग के लोग

इस पूरे मामले में एक बात समझ लेना चाहिए कि ये पूरे देश के किसानों का आंदोलन नहीं है। यह मुख्य रूप से पंजाब, हरियाणा के एक हिस्से और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों का आंदोलन है। जो किसानों के हित से ज्यादा बिचौलियों की व्यवस्था बनाए रखने की लड़ाई लड़ रहे हैं। दो वर्ग के लोग इस आंदोलन के समर्थन में हैं। एक, जिन्होंने कभी आंदोलन देखा नहीं वे पहले मुग्ध भाव और फिर सहानुभूति भाव से आप्लावित हैं। दूसरा वर्ग है जिसे लग रहा है कि इस आंदोलन के सहारे वे अपनी डूबती राजनीतिक नैया को पार लगा सकते हैं। पहला वर्ग निर्दोष भाव से जुड़ा है। दूसरा वर्ग पहले पर्दे के पीछे छिपा था। फिर आंदोलन के ही एक नेता गुरनाम सिंह चढ़ूनी का गुब्बारा चढ़ाया गया। पर गुब्बारा फूट गया तो अब खुलकर सामने आ गए हैं।
राहुल गांधी ने कृषि कानूनों के खिलाफ 'खेती का खून' नाम की बुकलेट जारी की, कहा- मैं PM Modi और बीजेपी से नहीं डरता
जी हां, बात कांग्रेस पार्टी की हो रही है। मंगलवार को राहुल गांधी ने प्रेस कांफ्रेंस में नया नारा दिया ‘खेती का खून, तीन कानून।‘ उनके इस नारे से उनकी ही पार्टी के कितने लोग सहमत होंगे कहना कठिन है। पर राहुल गांधी को इस बात से कभी कोई फर्क नहीं पड़ा कि उनकी बात किसी को समझ में आ रही है या नहीं। अभी विदेश यात्रा से लौटे हैं तो जोश में हैं। कब तक रहेंगे किसी को पता नहीं।

राजनीति की विधवाओं की तलवार

सरकार तीनों कानूनों में सुधार के अलावा इससे इतर मांगों पर भी विचार करने और उन्हें मानने को तैयार है। विपक्षी राजनीतिक दल भी किसानों के साथ तो दिखना चाहते हैं लेकिन इससे ज्यादा नहीं। पर कांग्रेस अपना लोभ संवरण नहीं कर पाई। पार्टी की हालत नदी में डूबते हुए व्यक्ति की तरह हो गई है। उसे जो भी दिख जाय उसी पर झपटती है। कुल मिलाकर हाल यह है कि किसान आंदोलन राजनीति की विधवाओं की तलवार बन गया है। सब भांजना चाहते हैं। वह भी जिनमें इस तलवार को उठाने का बूता नहीं है।
Farmers' protest: Bharatiya Kisan Union activists lay siege to major highways across Uttar Pradesh- The New Indian Express

सामानान्तर परेड की जिद

आंदोलनकारियों का रवैया देखिए, सरकार का प्रस्ताव उन्हें मंजूर नहीं। सुप्रीम कोर्ट की कमेटी उनके लिए कोई अहमियत नहीं रखती। वे कमेटी के सामने नहीं जाएंगे। पहले सरकार ने और फिर सुप्रीम कोर्ट ने अनुरोध किया कि मौसम और महामारी के मद्देनजर महिलाओं, बच्चों और बुजुर्गों को वापस भेज दिया जाय। जवाब था नहीं भेजेंगे। सुप्रीम कोर्ट ने एक असाधारण कदम उठाते हुए अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर तीनों कानूनों के अमल पर रोक लगा दी है। इसका भी किसानों पर असर नहीं पड़ा। अब गणतंत्र दिवस की परेड के सामानान्तर परेड की जिद है। पुलिस कह रही है दिल्ली की सीमा से बाहर कर लीजिए। जवाब है- नहीं करेंगे। सुप्रीम कोर्ट ने कहा दिल्ली पुलिस को अधिकार है कि वह रैली की इजाजत दे या नहीं। राकेश टिकैत कह रहे हैं कि हमें किसी से इजाजत लेने की जरूरत नहीं है।

रास नहीं आई अम्बेडकर की नसीहत

डा. भीमराव अम्बेडकर ने नवम्बर, 1949 में संविधान सभा में कहा था कि सामाजिक और आर्थिक लक्ष्य की प्राप्ति के लिए संवैधानिक उपाय उपलब्ध हो तो असंवैधानिक तरीकों का उपयोग ‘ग्रामर ऑफ एनार्की’ है। इनसे जितनी जल्दी मुक्ति पा लें उतना अच्छा। उनके मुताबिक हिंसक क्रांति, सिविल नाफरमानी, असहयोग और सत्याग्रह असंवैधानिक उपाय हैं। ऐसा नहीं है कि उन्होंने इन तरीकों के इस्तेमाल की हर परिस्थिति में मनाही की हो। उन्होंने कहा था कि जब संवैधानिक तरीकों से हल के सारे रास्ते बंद हो जायं तो ही इनका उपयोग करना चाहिए। पर पिछले सत्तर साल से बात बात पर अम्बेडकर की दुहाई देने वालों को उनकी नसीहत कभी रास नहीं आई।

किसानों का एक ही जवाब

किसान आंदोलन की मूल समस्या यह है कि आंदोलनकारी अपना हित नहीं देख पा रहे। सुप्रीम कोर्ट की बनाई कमेटी की पहली बैठक के बाद उसके सदस्य और शेतकारी संघटना के अध्यक्ष अनिल घनवट ने कहा कि कृषि कानूनों को वापस लेना किसानों के हित में नहीं है। यदि इन कानूनों को वापस ले लिया जाता है तो अगले पचास साल तक कोई सरकार कृषि सुधार का प्रयास नहीं करेगी। किसानों का एक ही जवाब है- हम तो नहीं मानेंगे, कर लो जो करना हो।
(दैनिक जागरण से साभार)