apka akhbarप्रदीप सिंह।
देश की राजधानी दिल्ली की सीमा पर किसानों के नाम पर चल रहे आंदोलन का अब किसानों से कोई ताल्लुक नहीं रह गया है। क्योंकि कोई भी आंदोलन किसी समस्या का समाधान खोजने के लिए होता है। समाधान का रास्ता संवाद से निकलता है। आंदोलनकारी न तो समाधान चाहते हैं और न ही संवाद। यह एक प्रयोग हो रहा है जो सफल हो गया तो भारत में जनतंत्र को कमजोर करने का साधन बनेगा। 

यह आंदोलन इस बात की मुनादी है कि अब इस देश में कानून संसद में भले बन जाएं लेकिन उन्हें सड़क पर रद्द किया जाएगा। इस आंदोलन के समर्थक आग से खेल रहे हैं। जो राजनीतिक दल साथ हैं वे उसी हाथ (जनतंत्र और संविधान का राज) को काटना चाहते हैं जो उन्हें खिला (राजनीतिक अवसर) रहा है।

अम्बेडकर की चेतावनी

डा. भीमराव अम्बेडकर ने पच्चीस नवम्बर, 1949 को संविधानसभा में अपने आखिरी भाषण में देशवासियों को तीन चेतावनियां देते हुए कहा था कि इन पर ध्यान नहीं दिया गया तो जनतंत्र खतरे में पड़ सकता है। उनमें से पहली चेतावनी का जिक्र यहां प्रासंगिक होगा। उन्होंने कहा कि था कि अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में हमने आंदोलन के जिन हिंसक, अहिंसक तरीकों का इस्तेमाल किया वह अब बंद हो जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि जब हमें अपनी समस्याओं के हल के लिए संवैधानिक उपाय (भारत का संविधान) मिल रहा है तो इनकी कोई जरूरत नहीं है। उन्होंने यह भी कहा कि गांधीवादी सत्याग्रह का इस्तेमाल भी बंद होना चाहिए।

तीन विकल्प

संवैधानिक जनतंत्र में सरकार के किसी फैसले, कानून या आदेश से किसी व्यक्ति या समूह को एतराज, दिक्कत हो तो उसके सामने तीन विकल्प हैं। एक, वह सरकार से बात करे। बताए कि कानून के किन प्रावधानों से उन्हें परेशानी, संदेह या भ्रम है। सरकार का दायित्व है कि उनसे बात करे और उनकी शंकाओं और संदेहों को दूर करे। सरकार ऐसा नहीं करती तो उनके पास दूसरा विकल्प है, अदालत। संसद से पास कानून को देश के सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है। न्यायालय का फैसला सबको मान्य होना चाहिए। पर ऐसा भी संभव है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले से हम संतुष्ट न हों। यह कोई अस्वाभाविक बात नहीं है। ऐसे में हमारे सामने तीसरा विकल्प है। जो जनतांत्रिक व्यवस्था का सबसे मजबूत हथियार है। वह है वोट। चुनाव के समय वोट देकर ऐसी सरकार को सत्ता से हटा सकते हैं। सड़कें जाम करके, आर्थिक गतिविधियां रोककर सरकार को ब्लैकमेल करने का रास्ता जनतंत्र का रास्ता नहीं हो सकता।

किसान संगठनों की रुचि

इस आंदोलन के एक महीने के वक्फे पर गौर करें तो दो बातें साफ नजर आती हैं। एक सरकार इस बात के लिए तत्पर है कि किसानों की आशंकाओं, भ्रमों और ऐतराजों का समाधान निकाले। किसान संगठनों की रुचि बातचीत में कम मामले को उलझाए रखकर आम लोगों और सरकार को परेशानी में डालने में ज्यादा नजर आ रही है। किसान संगठनों की मंशा संसद से बने कानून को सड़क पर बदलने की दिख रही है। अब बातचीत के लिए भी उनकी पहली शर्त है कि सरकार कानून वापस ले। इस तरह की मांग विरोधी राजनीतिक दल की तो शायद हो सकती है लेकिन किसानों की नहीं। ये संगठन यदि किसानों के हित के लिए लड़ रहे होते तो उनके हित में सरकार पर फैसले का दबाव डालते। पर इनका एजेंडा तो राजनीतिक है।

कानून का विरोध करने वालों के तर्क

सरकार इनके दबाव में यदि इस मांग को स्वीकार कर लेती है तो उसके बाद देश को अराजकता की ओर जाने से कोई रोक नहीं सकता। जरा कल्पना कीजिए कल को संसद कोई और कानून पास करेगी और पचास हजार, एक लाख लोग देश की राजधानी को घेर लेंगे और उसे रद्द करने की मांग करेंगे। फिर यह सिलसिला कहां रुकेगा। इस कानून का विरोध करने वालों के तर्क देखिए। कहा जा रहा है कि कानून बनाने से पहले सरकार को व्यापक विचार विमर्श करना चाहिए था। ज्यादा पुरानी बात छोड़ भी दें तो इन कानूनों के बारे में साल 2003 से संसद से सड़क तक चर्चा हो रही थी। तीन-तीन सरकारें, अटल बिहारी वाजपेयी, मनमोहन सिंह और अब नरेन्द्र मोदी की सरकार इस पर चर्चा कर चुकी है। राजनीतिक दल अपने चुनाव घोषणा पत्र में इसे शामिल कर चुके हैं। शांता कुमार कमेटी और स्वामीनाथ आयोग वृहत चर्चा के बाद अपनी संस्तुति दे चुका है। इन कानूनों से सम्बन्धित विधेयकों पर ससंद के दोनों सदन विचार करके इसे मंजूरी दे चुके हैं। किसी जनतांत्रिक देश में कानून बनाने के लिए इसके अलावा और क्या तरीका हो सकता है।

नये कानून और आंदोलनकारियों के मुद्दे

आंदोलनकारियों के दो बड़े मुद्दे हैं। न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) और मंडियों की व्यवस्था। हद तो यह है कि तीनों नये कृषि कानूनों से इन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। यानी तीनों कानून इनके बारे में हैं ही नहीं। फैज अहमद फैज का एक शेर है- ‘वो बात सारे फसाने में जिसका जिक्र न था, वो बात उनको बहुत ना-गवार गुजरी है।‘ अब सरकार कह रही है कि वह लिखकर देने को तैयार है कि एमएसपी जारी रहेगी। हालांकि जिसमें थोड़ी भी समझ होगी उसे समझने में देर नहीं लगेगी कि सरकार एमएसपी को खत्म नहीं कर सकती। क्योंकि केंद्र सरकार को चार करोड़ टन अनाज पीडीएस से वितरण के लिए, दो करोड़ टन सेना और सुरक्षा बलों और एक करोड़ टन मिड-डे मील के लिए खरीदना ही है। मंडियों की जहां तक बात है तो सरकार इसे खत्म करने की बजाय और मजबूत कर रही है।

छोटे किसानों के लिए नया आकाश

नये कानून किसानों और खासतौर से छोटे किसानों, जो नब्बे फीसदी से ज्यादा हैं, के लिए नया आकाश खोलते हैं। इन छोटे किसानों के पास औसतन एक हेक्टेयर जमीन है। इतनी कम जमीन पर खेती लाभप्रद नहीं हो सकती। उसका समाधान है किसान उपज संगठन (एफपीओ)। सरकार ने इन कानूनों के साथ ही देश में ऐसे दस हजार संगठन बनाने की घोषणा की है। ये कैसे छोटे किसान के लिए लाभप्रद हो सकते हैं इसका जीता जागता उदाहरण प्रधानमंत्री से संवाद में उत्तर प्रदेश के महाराजगंज जिले के किसान राम गुलाब ने दिया। उनके पास करीब डेढ़ एकड़ जमीन है। उन्होंने कुछ किसानों के साथ मिलकर ऐसा ही संगठन बनाया। पहले सौ किसान थे अब तीन सौ छोटे किसान साथ हैं। वे शकरकंदी की एक विशेष किस्म की खेती करते हैं। उन्होंने बताया कि जो शकरकंदी पहले वे बारह से पंद्रह रुपए किलो में बेच पाते थे। अब निजी कंपनी पच्चीस रुपए में खरीद रही है। किसानों को प्रति एकड़ एक लाख रुपए की कमाई हो रही है। यह भी कि उनकी फसल उनके खेत से ही चली जाती है। नया कानून कई राज्यों में चल रही इस व्यवस्था को कानूनी कवच प्रदान कर रहा है।

किसानों को दिखाए जा रहे डर

किसानों को दो डर दिखाए जा रहे हैं। एक, ये बड़ी कंपनियां आएंगी तो किसान का शोषण करेंगी और उनको अपनी उपज की पहले से भी कम कीमत देंगी। जो ऐसा कहते हैं उनके मन में दो विकृतियां हैं। एक निजी कंपनियां या कारपोरेट घराने चोर होते हैं और वे किसानों को लूटने के लिए घात लगाए बैठे हैं। दूसरी विकृति इन कंपनियों की रुचि व्यापार करने में नहीं किसान को लूटने में है। मतलब अपने व्यापारिक हित के खिलाफ ये कंपनियां काम करेंगी। भविष्य में क्या होगा यह तो हम लोग नहीं जानते। पर जो हो रहा है वह तो देख सकते हैं। इसके दो उदाहरण हैं। एक, डेयरी क्षेत्र। जहां सारा कारोबार को-आपरेटिव और निजी हाथों में है। एक लीटर दूध बेचने वाले किसान को भी कोई नहीं लूट रहा। दूसरा, मुर्गी पालन (पोल्ट्री फार्मिंग)। इसमें शत प्रतिशत काम निजी क्षेत्र में ही हो रहा है। इन दोनों क्षेत्रों में काम करने वाले किसान अनाज उगाने वाले किसानों से ज्यादा सुखी हैं।

किसान तो बहाना हैं

सारी बात का लब्बो-लुआब यह है कि यह आंदोलन केंद्र सरकार के तीन कृषि कानूनों के खिलाफ नहीं बल्कि भारत में संवैधानिक जनतंत्र के खिलाफ है। किसान तो बहाना हैं। यह आंदोलन भारतीय राष्ट्र राज्य को कमजोर करने की दिशा में बढ़ गया है। हालांकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सात राज्यों के किसानों से बात करते हुए एक बार फिर कहा कि उनकी सरकार के दरवाजे तर्क और तथ्य पर आधारित बातचीत के लिए हमेशा खुले हैं। इसका इतना सा असर हुआ कि आंदोलनकारी 29 दिसम्बर को बात के लिए तैयार हुए हैं। पर वही मुर्गी की एक टांग वाली कहावत के मुताबिक बातचीत की पहली शर्त है सरकार तीन कानूनों को रद्द करे। अब समय आ गया है कि इस आंदोलन और आंदोलनकारियों से सख्ती से निपटा जाय। ऐसी ताकतों के खिलाफ भारतीय राष्ट्र-राज्य को कमजोर नहीं नजर आना चाहिए।

(नोट: बहुत से पाठकों के विचारों से सहमत होते हुए लेख का मूल शीर्षक बदल दिया गया है)