प्रदीप सिंह ।
मोहम्मद साहब का एक कार्टून दिखाने वाले शिक्षक को मौत की सजा! यह किसी सभ्य समाज में तो नहीं ही होना चाहिए लेकिन हो रहा है। फ्रांस में जो कुछ हुआ उससे दुनिया को चिंतित होने की जरूरत है। पर उसके बाद जो हो रहा है उससे डरने की जरूरत है। क्योंकि सिरफिरे धर्मान्ध अपराधी किसी समाज में हो सकते हैं। पर ऐसे अपराधियों का बचाव और महिमामंडन किसी भी सभ्य समाज को डराने वाला है। यह किस तरह का मुसलिम समाज बन गया है। ऐसे जघन्य अपराध की निंदा की बजाय इस्लामोफोबिया का हौवा खड़ा कर रहा है।
बड़े संकट की मुनादी
एक बेकसूर शिक्षक को मौत के घाट उतार दिया गया और जबानों पर ताले लग गए हैं या समर्थन में आवाज उठ रही है। कमाल है कि दिन रात सेकुलरिज्म की दुहाई देने वाले भारत के मुसलमान और सेक्युलरिज्म को खतरे में बताने की डुगडुगी पीटने वाले उनके खैरख्वाह अचानक गूंगे हो गए हैं। जिन आमिर खान की पत्नी को भारत में डर लगता है उन्हें ऐसे आतंकवादियों से डर क्यों नहीं लगता। फ्रांस की घटना और उसके बाद तुर्की, पाकिस्तानी और दूसरे ऐसे देशों का फ्रांस के उत्पादों के बायकॉट की अपील बड़े संकट की आहट नहीं मुनादी है। आम लोगों की चुप्पी, वह समर्थन में हो या भय से, ऐसे तत्वों का हौसला बढ़ाती है।
फ्रांस जहां आजादी, समानता और भाईचारा की ही तरह धर्मनिरपेक्षता भी देश की संस्कृति का नीति वाक्य है, उसके राष्ट्रपति को कहना पड़ रहा है कि ‘अब डर उनको (कट्टरपंथियों) लगेगा।‘ इस हत्याकांड के बाद से फ्रांस में कट्टरपंथियों के खिलाफ बहुत तेज अभियान तेज चल रहा है। फ्रांस के राष्ट्रपति मैक्रों ने शिक्षक सैमुएल पैटी की हत्या के बाद कहा कि इस्लाम खतरे में है। इससे कई इस्लामी देश बिफरे हुए हैं। पाकिस्तान, ईरान और तुर्की ने बड़ी कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त की है। हत्यारे के खिलाफ नहीं फ्रांस के राष्ट्रपति के विरुद्ध। तुर्की के राष्ट्रपति अर्दोआन ने तो यहां तक कह दिया कि राष्ट्रपति मैक्रों को मनोचिकित्सक की जरूरत है। कई इस्लामी देशों ने फ्रांस में बने सामान का बहिष्कार करने का ऐलान किया है।
धार्मिक स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आजादी
यह सब हो रहा है मनसा, वाचा, कर्मणा सेक्युलर फ्रांस के साथ। दरअसल इस घटना ने एक बार फिर यह सवाल उठा दिया है कि धार्मिक स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आजादी साथ साथ नहीं चल सकते। धार्मिक स्वतंत्रता के लिए अभिव्यक्ति की आजादी की हत्या की जा सकती है। सैमुएल पैटी की हत्या के और क्या मायने निकाले जायं। सेक्युलर फ्रांस ही नहीं सेक्युलरिज्म में विश्वास रखने वाले सभी लोगों के लिए चार्ली हेब्दो कांड आने वाले संकट की चेतावनी थी। पैटी हत्याकांड उसके आने की घोषणा है।
महाराष्ट्र सरकार,
ये आपके सरकार के राज में क्या हो रहा है?
भारत आज France के साथ खड़ी है ..जो जिहाद फ़्रान्स में हो रहा है,उस आतंकवाद के ख़िलाफ़ हिंदुस्तान के PM ने फ़्रान्स के साथ मिल कर लड़ने की प्रतिज्ञा की है।
फिर मुंबई की सड़कों पर फ़्रान्स के राष्ट्राध्यक्ष का अपमान क्यों? pic.twitter.com/kb7PCCEY4S— Sambit Patra (@sambitswaraj) October 30, 2020
दुनिया को आज जिस समस्या का सामना करना पड़ रहा है उसके बारे में डा. भीमराव अम्बेडकर ने कई दशक पहले ही इस्लाम की खामियां बताते हुए सावधान कर दिया था। पर सेक्युलरिज्म की मरीचिका के पीछे भागने वाले और सेक्युलरिज्म के नाम पर अपने दूसरे एजेंडे चलाने वालों ने कभी सचाई का सामना नहीं किया। इस मुद्दे पर मैं डा. अम्बेडकर को पहले भी उद्धृत कर चुका हूं। उनके मुताबिक ‘इस्लाम का भाईचारा मानव का सार्वभौम भाईचारा नहीं है। यह भाईचारा सिर्फ मुसलमानों का मुसलमानों के लिए है। मुसलिम समाज से बाहर वालों के लिए सिर्फ अपमान और अदावत है।‘ उन्होंने इस्लाम की दूसरी खामी बताई कि ‘यह सामाजिक स्वराज की व्यवस्था है। क्योंकि उसकी निष्ठा उस देश के प्रति नहीं होती जहां वह रहा है। उसकी निष्ठा उसके धर्म के साथ है।‘ फ्रांस में यही तो हुआ। सोचिए शिक्षक पैटी की हत्या करने वाला युवक सिर्फ सत्रह साल का था। उसके मन में असहिष्णुता का यह जहर कहां से आया।
अल्ला का इस्लाम, मुल्ला का इस्लाम
इस्लाम, अरबी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ शांति में प्रवेश करना होता है। राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर संस्कृति के चार अध्याय में लिखते हैं- ‘जिस इस्लाम का प्रवर्तन हजरत मुहम्मद ने किया था और जिसका रूप अबूबक्र, उमर, उस्मान और अली जैसे खलीफों ने संवारा था, वह धर्म सचमुच स्वच्छ धर्म था और उसके अनुयायी सच्चरित्र, दयालु, उदार और ईमानदार थे।‘ वे लिखते हैं कि ‘बाद के अनुयायी बर्बर हो गए। यूरोप और एशिया में लूट-खसोट, मारकाट, खूंरेजी और पाशविक अत्याचार मुसलमानों के खास लक्षण माने जाने लगे।‘ वे अपनी बात के समर्थन में प्रसिद्ध समाजशास्त्री एमएन राय को उद्धृत करते हैं- ‘दरबार की विलासिता के कारण अरबी विद्या और संस्कृति की साधना दूषित हो गई और इस्लाम की गौरवपूर्ण पताका अपनी आरम्भिक क्रांतिकारी चमक खोकर तुर्कों और तातारों के व्यभिचारी हाथों में पड़कर अपना सतीत्व खो बैठी।‘ दिनकर की इस पुस्तक का पहला संस्करण 1956 में आया था और जवाहर लाल नेहरू ने इसकी प्रस्तावना लिखी है। साल 1962 में पुस्तक का तीसरा संस्करण आय़ा। उसमें उन्होंने इस्लाम वाला खण्ड फिर से लिखा। उद्धरण उसी से है। इन छह दशकों में अल्ला का इस्लाम मुल्ला का इस्लाम बन गया है। आज हालात ऐसे हो गए हैं कि यह धर्म गैर इस्लामी लोगों के लिए खतरा बन गया है। जिन्हें इस्लाम से प्रेम है उन्हें सोचना चाहिए कि ऐसा क्यों हुआ।
दूसरे मतावलम्बियों के लिए खतरा
शुरुआत जिस इस्लाम से हुई थी उसमें उसके मानने वाले सब एक थे। आज इसके फिरकों की गिनती बढ़ती जा रही है। परिभाषा यह बनती जा रही है कि जो ज्यादा हिंसक है वही असली इस्लाम को मानने वाला है। बात इतनी ही नहीं है कि इस्लाम को मानने वाले दूसरे मतावलम्बियों के लिए खतरा बनते जा रहे हैं। आपस में उनकी मारकाट और भी हिंसक है। जाहिर है कि कहीं तो कुछ गड़बड़ है। कहते हैं कि सबसे अच्छा बदलाव वही होता है जो अंदर से हो। किसी मजहब या समाज में सुधार तभी संभव है जब उसके अंदर से यह मांग उठे। क्योंकि बाहर वालों की हर ऐसी मांग को संदेह की नजर से देखा जाएगा।
मुसलिम समुदाय इन तत्वों के खिलाफ खड़ा हो
समय आ गया है कि दुनिया भर के लोग इस्लामिक आतंकवाद और कट्टरवाद की जमीनी हकीकत को समझें। फ्रांस के राष्ट्रपति मैक्रों ने कई बातें कही हैं। उन्होंने कहा कि अब आंसू बहाने की बजाय हथियार की जरूरत है। उनका सबसे अहम बयान है कि ‘अब डर पाला बदलेगा।‘ क्या दुनिया के दूसरे देश उनकी इस नीति से सहमत हैं? यदि सहमत नहीं हैं तो उनके पास दूसरा क्या रास्ता है। क्योंकि चुप बैठना कोई विकल्प नहीं है। पर डर को पाला बदलने के लिए जरूरी है कि न केवल कट्टरपंथियों से सख्ती से निपटा जाय बल्कि उनके समर्थन को सीमित किया जाय। इसके लिए जरूरी है कि मुसलिम समुदाय इन तत्वों के खिलाफ खड़ा हो। उसके सामने यह एकमात्र विकल्प है। समय बड़ी तेजी से हाथ से निकलता जा रहा है। गैर मुसलिमों के धैर्य का इम्तहान लेने का वक्त निकल गया है। इससे पहले कि गैर मुसलिम बिरादरी इन कट्टरपंथियों का विरोध करते करते पूरे समुदाय के ही खिलाफ हो जाय। दुनिया में शांति और भाईचारे के लिए यही एक रास्ता है।
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