apka akhbarप्रदीप सिंह ।

दुनिया भर में अस्मिता की राजनीति का प्रचलन है। भारत में जाति व्यवस्था के कारण शायद ज्यादा ही। पिछले सत्तर सालों की बात करें तो जातीय अस्मिता का भारत की राजनीति पर सबसे ज्यादा प्रभाव रहा है। जातीय अस्मिता की राजनीति लम्बे समय से राजनीति में सफलता की कुंजी रही है। अब खत्म हो गई हो ऐसा नहीं है। इसका स्वरूप बदलता रहता है। जाति के साथ ही धार्मिक अस्मिता भी चुनावी राजनीति में अहम भूमिका निभाती रही है। पर पिछले पांच सालों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक नई अस्मिता की राजनीति शुरु है। यह है समाज के वंचित वर्ग की अस्मिता।


 

यों तो अमूमन होता यह है कि पार्टी अस्मिता की राजनीति शुरू करती है और सत्ता में आने पर सरकार उसे सुदृढ़ करने का काम करती है। पिछले पांच सालों में गंगा उलटी बही है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने केंद्र सरकार की योजनाओं के जरिए वंचित वर्ग की अस्मिता की राजनीति शुरू की और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने संगठन के जरिए इसे सुदृढ़ करने का काम किया। अस्मिता की इस राजनीति का ध्येय वाक्य है ‘सबका साथ, सबका विकास‘।  यह महज एक राजनीतिक नारा नहीं है। यह नारा ठोस वैचारिक धरातल पर खड़ा है। साल 2014 में सत्ता में आने के बाद संसद में अपने पहले भाषण में प्रधानमंत्री ने जब कहा कि उनकी सरकार देश के गरीबों, पिछड़ों, दलितों, आदिवासियों और समाज के वंचित वर्ग के लिए काम करेगी तो इसे एक राजनीतिकशब्दाडम्बर के रूप में देखा गया था। उस समय ऐसे लोगों की कमी नहीं थी कि जिनका मानना था कि यह सरकार कारपोरेट घरानों के मुताबिक चलेगी। यह भी कि मंत्रिमंडल में ऐसे ही लोगों का बोलबाला होगा। पर जल्दी ही लोगों उनका भ्रम टूट गया।

सरकारें आम तौर पर अर्थव्यस्था की विकास दर बढ़ने से संतुष्ट हो जाती हैं। मान लिया जाता है कि अर्थव्यवस्था बढ़ेगी तो सबको फायदा होगा। मोदी सरकार ने इससे परे देखने का फैसला फैसला किया। ऐसे समय जब बुद्धिजीवियों, अर्थशास्त्रियों और राजनीतिक पंडितों का एक वर्ग सरकारसे किसी ‘बिग बैंग’ सुधार की उम्मीद कर रहा था, मोदी ने वंचित वर्ग की अस्मिता का विमर्ष खड़ा करने के लिए अपनी सरकार के कार्यक्रम तय किए। कुछ ऐसा जो बहुत बड़ा न हो पर इतना बड़ा जरूर हो कि सामाजिक, आर्थिक  तौर पर हाशिए पर खड़े व्यक्ति को लगे कि उसके जीवन में कुछ सुधार आया है। कार्यक्रम हो तो सबके लिए लेकिन इस वर्ग के लोगों को लगे कि यह व्यक्तिगत रूप से उसके लिए बना है। इसकी शुरुआत हुई रसोई गैस के मुप्त कनेक्शन की योजना उज्ज्वला से। एक मई 2015 को उत्तर प्रदेश के बलिया से शुरू हुई इस योजना के तहत सात करोड़ से ज्यादा परिवारों के घर में रसोई गैस का मुफ्त कनेक्शन पहुंच चुका है।

इसके बाद स्वच्छ भारत योजना के तहत करीब नौ करोड़ सेज्यादा घरों में शौचालय का निर्माण, पहले हर गांव और फिर हर घर तक बिजली पहुंचाने का लक्ष्य, प्रधानमंत्री आवास योजना, आयुष्मान योजना के तहत दस करोड़ परिवारों को सालाना पांच लाख रुपए तक के मुफ्त इलाज कीआयुष्मान योजना और फिर बारह करोड़ किसान परिवारों को किसान सम्मान निधि ने मोदी सरकार के प्रति लोगों का नजरिया बदल दिया। गरीब या समाज का वंचित तबका एक वर्ग के रूप में तो हमेशा से था। पर गरीबी या अभाव के अलावा उसे जोड़ने वाला कोई और तत्व नहीं था। इन योजनाओं के जरिए मोदी सरकार ने इस वर्ग को एकत्र होने का एक आधार दिया। ये ऐसी योजनाएं हैं जो ठोस रूप में उसके सामने उपस्थित हैं। यह आभासी दुनिया नहीं वास्तविक दुनिया है। जो चीजें, सुविधाएं कभी उसकी कल्पना का हिस्सा हुआ करती थीं, वे मूर्त रूप में उसके अपने जीवन, अपने घर में आ गईं।

इससे आए बदलाव को ज्यादातर लोग या तो देखने को तैयार नहीं हैं या देखकर भी इसे पहले की ही तरह की सरकारी योजनाओं में कुछ और योजनाओं के इजाफे के रूप में देख रहे हैं। ये योजनाएं कोई वादा नहीं हैं। बिजली के अलावा और कोई योजना नहीं है जिसका 2014 के चुनाव में पार्टी या पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी ने वादा किया था। नरेन्द्र मोदी पांच साल में सितारे जमीं पर तो नहीं लाए पर ये योजनाएं जमीन पर जरूर लागू कर दी हैं। और सात दशकों की आदत के मुताबिक इन्हें पाने के लिए समाज के इस वर्ग को किसी को रिश्वत देने की जरूरत( ज्यादातर मामलों में) नहीं पड़ी। यह उनके लिए कल्पनातीत है। इन योजनाओं का लाभ उनके लिए गूंगे के गुड़ के स्वाद जैसा है।

वंचित वर्ग की इस अस्मिता की राजनीति के साथ राष्ट्रीय सुरक्षा और राष्ट्रवाद के मुद्दे का सबसे ज्यादा असर भी इसी तबके पर पड़ा है। भाजपा के राजनीतिक विरोधियों को पार्टी का,‘मोदी है तो मुमकिन है’, का नारा महज चुनावी नारा लग सकता है लेकिन इस वर्ग के लिए यह निजी अनुभव से उपजी हुई अनभूति है। उसे लग रहा है कि यह प्रधानमंत्री ऐसा जो उनके बारे में सोचता ही नहीं, करता भी है। इन पांच सालों में फर्क यह आया है कि साल 2014 में नरेन्द्र मोदी से देश के लोगों को उम्मीद थी। आज जब मोदी और उनकी सरकार फिर से जनादेश हासिल करने के लिए जनता के दरबार में है तो लोगों को उन पर विश्वास है। इस विश्वास की ही वजह से विपक्ष कोई राष्ट्रीय विमर्ष खड़ा कर पाने में अभी तक सफल नहीं हुआ है।

यह याद करना कठिन है कि 1952 के बाद कोई ऐसा लोकसभा चुनाव हुआ हो जब भ्रष्टाचार मुद्दा न रहा हो। आजादी के बाद दूसरे आम चुनाव से पहले जवाहर लाल नेहरू सरकार के खिलाफ जीप घोटाले का मुद्दा उठ चुका था।  विपक्ष को यह बात समझ में आ रही है। यही कारण है कि राहुल गांधी राफेल का एक नकली विमर्ष खड़ा करने की नाकाम कोशिश कर रहे हैं। इस मुद्दे पर आम लोगों की तो छोड़िए विपक्ष के बाकी दलों को ही भरोसा नहीं है। पर इस विमर्ष को किसी भी तरह और किसी बी कीमत पर खड़ा करने की कोशिश में उन्होंने सुप्रीम कोर्ट तक को लपेट लिया। जहां उन्हें माफी मांगनी पड़ रही है।

वंचित वर्ग की अस्मिता की इस नई राजनीति में राष्ट्रीय अस्मिता, सांस्कृतिक अस्मिता दलित अस्मिता और अति पिछड़े वर्गों की अस्मिता समाहित हो गई है। साल 2014 में यह वर्ग मोदी की ओर उम्मीद से देख रहा था। वह मंडल की राजनीति से उभरी पिछड़ी राजनीति के दौर में ठगा गया महसूस करता है। सामूहिक रूप से संख्या में ज्यादा होने के बावजूद अकेले अकेले उसकी संख्या कम है। 2014 के बाद उसने 2017 में उत्तर प्रदेश में एक बार फिर भाजपा का साथ दिया। इस चुनाव में वह भाजपा सरकार की केंद्रीय योजनाओं का ब्रांड अम्बेसडर बन गया है। भाजपा का झंडा उसने बहुत मजबूती से उठा रखा है।


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