apka akhbarप्रदीप सिंह ।

अयोध्या और कश्मीर में जो हुआ और जो होने जा रहा है वह कल्पनातीत था। अयोध्या में राम मंदिर बनने की शुरुआत और जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 की विदाई जितने सहज ढंग से हुई उस पर सहसा विश्वास नहीं होता है। इन दोनों पर लोगों की प्रतिक्रिया बताती है कि देश का जनमानस इसके लिए तैयार था। बल्कि कहना चाहिए कि इंतजार कर रहा था। पर यह भी मन में था कि शायद यह कभी न खत्म होने वाला इंतजार है। अयोध्या आंदोलन की नींव में राम भक्तों का बलिदान है तो कश्मीर में गुरु तेग बहादुर, डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी और लाखों हिंदुओं का बलिदान है। अयोध्या और कश्मीर भारत की संस्कृति और सांस्कृतिक धरोहरों की रक्षा के लिए त्याग और बलिदान की लम्बी कहानी समेटे हुए हैं।


 

अयोध्या का फैसला देश की सर्वोच्च अदालत से आया। कश्मीर का फैसला प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह की दृढ़ राजनीतिक इच्छा शक्ति से। जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाना जितना कठिन था शायद उससे भी ज्यादा चुनौतीपूर्ण था, उसके बाद की स्थिति को संभालना। जिनकी राजनीति, रोजी-रोटी और पीढ़ियों का सत्ता सुख इस अनुच्छेद से जुड़ा था, उसको निष्प्रभावी करना इतना आसान नहीं था। अनुच्छेद 370 के सहारे खड़े ये सारे किले ध्वस्त हो गए हैं। जम्मू-कश्मीर की अवाम ने इस बदलाव को स्वीकार कर लिया है। इसका प्रमाण सूबे के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के इस बयान से मिलता है कि अब हमारी राजनीति का आधार क्या होगा, इसके बारे में हमें नये सिरे से सोचना पड़ेगा।

जो मोदी और शाह कर सके वह काम इससे पहले के लोग या सरकारें यह क्यों नहीं कर पाईं? इसको समझाना इसलिए जरूरी है कि इसके बाद ही समझ में आएगा कि ये क्या करने वाले हैं क्या कर सकते हैं। ऐसा तो नहीं है कि यह काम पहले मुश्किल था और अब आसान। इसकी दो वजहें नजर आती हैं। पहला दोनों ने लीक पर चलने से इनकार कर दिया। दोहा है न- लीक लीक गाड़ी चले, लीकहिं चलें कपूत, लीक छाँड़ि तीनों चलें शायर सिंह सपूत। दूसरा कारण अपने पर विश्वास कि जो कर रहे हैं वह देश हित में कर रहे हैं और देश के लोग मह पर भपोसा करते हैं। तो हर बड़ा सपना एक सपना देखने वाले से शुरू होता है। कर्म के बिना हर परिकल्पना (विजन) महज सपना बन कर रह जाती है।

नेतृत्व का गुण है आगे सोचने की कला। तो सवाल है कि अयोध्या में राम मंदिर और जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाने के बाद आगे क्या?आम धारणा है कि हैं कि मोदी को चौंकाने, सरप्राइज देने की आदत है। दोनों ही नेता अपने अगले कदम की हवा नहीं लगने देते। यकीन न हो तो उमर अब्दुल्ला और फारुख अब्दुल्ला से पूछ लीजिए। पांच अगस्त, 2019 से तीन पहले प्रधानमंत्री से मिले और खुशी खुशी गए कि कुछ नहीं होने वाला। अमित शाह ने अपने करीबियों को भी हवा नहीं लगने दी कि वे अगले दिन राज्यसभा में अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी करने का संकल्प पेश करने वाले हैं। पांच तारीख की सुबह भी जब जिसको जितना और जिस समय जानना था उसको उतना उसी समय बताया गया। क्यों? जिन्होंने चाणक्य को पढ़ा है वे आसानी से समझ सकते हैं। चाणक्य ने लिखा है कि राजा( शासक) को कछुए की तरह होना चाहिए। जैसे कछुआ जब जितना जरूरी होता है उतना ही अंग निकालता है। इसी तरह राजा को जब जितना जरूरी हो उतना ही बताना चाहिए।

सवाल फिर वही है कि आगे क्या? इसका जवाब किसी को पता नहीं। मोदी  सरकार के दूसरे कार्यकाल के अभी चौहद महीने ही हुए हैं और भगवान राम का करीब पांच सौ साल का वनवास खत्म हो गया है। अनुच्छेद 370 की की बहत्तर साल पुरानी बेड़ी टूट गई है। यह काम उसी भाजपा की सरकार ने किया है जो सत्ता के लिए इन दोनों मुद्दों को छोड़ने के लिए तैयार हो गई थी। तो जरा भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मुद्दों पर नजर डालें। समान नागरिक संहिता, जनसंख्या नियंत्रण, पाक अधिकृत कश्मीर को वापस लेनाऐसे मुद्दों की फेहरिस्त की बात करते हुए काशी और मथुरा को मत भूलिए। पर इन सब मुद्दों के मूल में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद है। ऐसे मुद्दे आते रहेंगे और उन पर काम होता रहेगा। मोदी के इस कार्यकाल में अभी तीन पांच अगस्त और आने वाले हैं।

अजीब संयोग है कि सौराष्ट्र में सोमनाथ मंदिर में प्राणप्रतिष्ठा के कार्यक्रम में तत्कालीन राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद शामिल हुए थे और राम मंदिर के भूमि पूजन में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी। जवाहर लाल नेहरू के विरोध के बावजूद तत्कालीन राष्ट्रपति गए। नेहरू इसे हिंदू पुनर्जागरण के रूप में देख रहे थे। आज उसी कांग्रेस के लोग भविष्य के कदमों की आहट सुन नहीं पा रहे। वे मुहुर्त पर सवाल उठा रहे हैं। सोमनाथ मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा के बाद डा. राजेन्द्र प्रसाद ने भाषणा दिया था जो दूसरे दिन सब अखबारों में छपा। फिर भी नेहरू ने सुनिश्चित किया कि सरकारी माध्यम इसको सेंसर करें। नेहरू महान जनतांत्रिक और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पुरोधा माने जाते हैं। मोदी सरकार ने फैसला किया है कि राममंदिर के कार्यक्रम का सरकारी संचार माध्यम दूरदर्शन से सजीव प्रसारणकरेगा। और नेहरूवादी मोदी को फासीवादी मानते हैं।

मोदी के अश्वमेघ के घोड़े को इस समय रोकने वाला कोई नहीं है। यानी हिंदू विरोध की राजनीति का विकल्प समाप्त हो गया है। यह समय वीर सावरकर के उस कथन को याद करने का है जिसमें उन्होंने कहा था कि भारत को पितृ भूमि और पुण्य भूमि मानने की प्रवृत्ति ही हिंदुत्व का लक्षण है।तीन तलाक के खिलाफ कानून बन गया, जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 चला गया, और अब अयोध्या में राम मंदिर बनने जा रहा है। तो अब आगे क्या? यह सवाल भाजपा समर्थक और विरोधी दोनों पूछ रहे हैं। ये काम भाजपा, मोदी सरकार और संघ परिवार का लक्ष्य नहीं हैं। ये लक्ष्य के रास्ते के मील के पत्थर हैं। राम मंदिर का निर्माण भारत की गरिमा की पुनर्स्थापना का पर्व है।

कहते हैं कि धर्म की रक्षा दो तरह से होती है, शास्त्र से और शस्त्र से। इसीलिए गुरुगोविंद सिंह दो तलवारें रखते थे। एक मीरी के लिए और एक पीरी के लिए। पर यह दौर बताता है कि धर्म की रक्षा उसके अनुयायियों की आस्था से भी होती है। 492 साल तक राम भक्तों की आस्था अडिग रही। अयोध्या में भव्य राम मंदिर उसी आस्था का प्रतिफलन है। सोमनाथ मंदिर के जीर्णोद्धार के मौके पर तत्कालीन राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद ने कहा था- विध्वंस से बड़ी ताकत निर्माण की होती है। आज पूरी दुनिया अयोध्या में निर्णाण की इस शक्ति के साक्षी बनेगी।

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