apka akhbar-ajayvidyutपद्मश्री कैलाश खेर से अजय विद्युत् की बातचीत

भारतीयता… इसे ही कैलाश खेर अपनी पहचान बताते हैं। परिवार ने यही संस्कार उनको दिए और तमाम तरह के झंझावात झेलते हुए भी इस धागे को उन्होंने अपने हाथ से नहीं छूटने दिया। उसी का परिणाम है कि संगीत के क्षेत्र में अच्छा नाम और दाम कमा चुकने के बावजूद उनकी जीवनशैली, आहार व्यवहार से लेकर संगीत और गीत उसी भारतीयता में रचा बसा है। इसे पूरी दुनिया तक पहुंचाने के संकल्प को पूरा करने में वह जी-जान से जुटे हैं।


 

एक कैलाश वह छोटा बच्चा जो मां-पिता से चिपका रहता होगा… दूसरा संगीत की दुनिया का जाना माना नाम बन चुका कैलाश खेर… कैसी रही यह यात्रा।
– हमारा बचपन सामान्य बचपन की तरह नहीं रहा। जिस तरह बहुत सारे बच्चे टॉफी, आइसक्रीम खाकर, खूब लाड़ प्राप्त करके, अपनी जिद चलाकर जीते हैं वैसे हम नहीं थे। मैं गरीब परिवार तो नहीं कहूंगा, हम सामान्य परिवार में थे। । बचपन हमारा इस प्रकार थोड़ा निराला रहा कि चार पांच साल की आयु में ही मैं ऐसे बड़ों की संगत में रहने लगा जिनकी आपसी बातें भाषा, विचार आदि को लेकर तो होती ही थीं, लेकिन अध्यात्म उनकी चर्चा का प्रमुख विषय हुआ करता था। मैं छोटा सा बच्चा अपने पिता के साथ चिपका उनकी बातें सुनता रहता था। कई बुजुर्गांे को ध्यान जाता था तो वे मेरे पिता से कहते थे कि ‘इतना छोटा बच्चा यहां क्यों बैठा है। सत्संग और ज्ञान चर्चा में इसे क्या दिलचस्पी। इस बच्चे को बाहर भेज दें।’ तब मेरे पिताजी उनसे कहते थे कि ‘बच्चा है रहने दो।’ इस तरह से बचपन से ही अध्यात्म में मेरी बहुत रुचि थी। बच्चों के साथ खेलने कूदने में मेरा मन नहीं लगता था। तो शायद बचपन के उस काल में ही आत्मा में संसार की रहस्यात्मकता को जानने की एक ललक शुरू हो गई थी। फिर जैसे जैसे अवस्था बढ़ती गई- चार साल का बच्चा पांच का हो गया, पांच से छह, फिर सात-आठ वैसे वैसे वह समझ भी थोड़ी थोड़ी स्पष्ट और विस्तृत होती गई। हृदय में एक बात मैंने मन ही मन तय की कि जीवन में चाहे कुछ बनूं या न बनूं… ये जो कुछ मैं सुन रहा हूं और सुनने के बाद जो कुछ मेरे भीतर जा रहा है- उसे संजोए रखूंगा। आयु भले मेरी कम थी लेकिन शायद मेच्योरिटी का स्तर कहीं ज्यादा था।
शायद उसी का असर रहा कि काफी आपाधापी, कष्टों और मुश्किलों के बाद जब करियर शुरू हुआ तब तक वे बीज बचे रहे हालांकि तब तक मेरी आयु बढ़ चुकी थी- लगभग तीस वर्ष का हो गया था। उस तक काफी हताशाएं हाथ लग चुकी थीं। काफी सारे कार्य किए थे। व्यापार भी किया था एक्सपोर्ट इम्पोर्ट का। उसे काफी अच्छे से मेहनत कर चलाया। दो तीन साल चला भी लेकिन उसमें काफी चीजें करनी पड़ती हैं जिनके लिए मन नहीं मानता जैसे झूठ बोलना, तिकड़म लगाना- वह मुझसे हो नहीं पाया… उसके लिए हम बने भी नहीं थे। लगा जैसे नियति अपना खेल खेल रही हो। जिस तरह की आपकी यात्राएं होती हैं, मन्तव्य होते हैं, गन्तव्य होते हैं… ईश्वर उसी दिशा में ऐसी ऐसी घटनाएं कराते रहते हैं कि लगता है सब कुछ प्राकृतिक रूप से हो रहा है। पहले से विधि का विधान बना होता है कि आपको क्या बनना है, किधर जाना है। लेकिन जीवन यात्रा में अजब गजब मंजर-पड़ाव भी आते हैं। वह ईश्वर का तरीका है करने का। काफी उतार चढ़ाव रहे। समाज भी देख लिया। अध्यात्म भी देख लिया- ऋषिकेश में कर्मकांड सीखा, गंगा आरती में जाते थे… युवावस्था में प्राय: ब्रह्मचर्य का संन्यासी जीवन जीते थे। फिर जब हृदय ने समाज में पुन: आने की दिशा दी- मुंबई जाता हूं और जिस भी तरीके का मैं गाता हूं, लिखता हूं, कंपोज करता हूं उसकी एक एलबम निकालते हैं। तो इस तरह मैं तीस वर्ष का था जब मुंबई आया था। अब पैंतालीस का हो गया हूं। तो पंद्रह साल मुंबई आए हो गए उसके पहले तेरह साल संगीत की सृजन यात्रा के हो गए। तब जाकर कैलाश खेर निर्मित हुए हैं जो आज के कैलाश खेर हैं।

लोगों को अपना परिचय देने का आपका खास अंदाज हुआ करता है?
– एक समय हम भीड़ वाले कैलाश खेर थे। अब हैं भी तो खुद को पता नहीं कि हैं भी कि नहीं। लोग पूछते थे- आपकी तारीफ? तो हम यही कहते थे कि हमारी तारीफ यही है कि हम बस हैं। कोई ज्यादा पूछता तो कहता कि मैं अभी तक हूं, विलुप्त नहीं हुआ हूं, मिटा नहीं हूं- बस यही मेरी तारीफ या परिचय है।

भारतीय सभ्यता, संस्कृति, जीवनशैली, अध्यात्म- यह आपकी संगीत यात्रा की केंद्रीय वस्तु है। इससे ही लिपटे रहे। कभी कुछ और करने का मन नहीं हुआ।
– जो हमारी भारतीय संस्कृति और जीवन शैली है, जो भी हमारे जीने के ढंग हैं उसे एक शब्द में समेट सकते हैं- भारतीयता। यह भारतीयता कोई मामूली चीज नहीं है साहब! भारतीयता दो सौ करोड़ वर्ष पुरानी सभ्यता है। भारतीयता में न केवल जीने के ढंग हैं बल्कि मनुष्य होने के ढंग हैं। हम कैसे प्रकृति के साथ में जिएं यह हमारे जीने के ढंग में है। हमें कभी दवाइयां खानी नहीं पड़ती थीं, चिकित्सक को बुलाना नहीं पड़ता था- यह था भारत के जीने का तरीका। ऐसी पुरानी सभ्यता विश्व में कहीं और तो है भी नहीं। ईसाईयत दो हजार साल पुरानी सभ्यता है, इस्लाम चौदह सौ साल पुराना है… तो इन सभ्यताओं के भी वर्ष गिने जा सकते हैं। हमारी दो सौ करोड़ वर्ष पुरानी सभ्यता है… और यह वह आंकड़ा है जिस तक अभी विशेषज्ञ पहुंच पाए हैं। हमारी भारतीय सभ्यता में न केवल अध्यात्म छुपा है, जीने के ढंग छुपे हैं, प्रकृति के साथ तालमेल के सूत्र छिपे हैं- बल्कि इसमें पूरा विज्ञान छुपा है। यानी हमारी संस्कृति जितनी पौराणिक और पारंपरिक है उतनी ही समकालीन और आधुनिक भी है। मैं उसी को बढ़ाने के लिए जीवन जीता हूं, उसी को जीने के लिए जीवन जीता हूं। किसी को खुश करने के लिए मुझे संगीत बनाना नहीं है। किसी मनुष्य की गाथा गाने या उसका गुणगान करने को संगीत कभी प्रेरित नहीं करता।
मैं प्रकति में इतना डूबा रहता हूं कि मेरे श्रृंगार रस के गीत जिसे अंग्रेजी में रोमांटिक सांग्स कहते हैं, वे भी प्रकृति से ही जुड़े रहते हैं। उदाहरण देता हूं- ‘तेरी दीवानी’ सब अपने अपने नशे में इसके अलग अलग अर्थ करते हैं लेकिन मेरी दृष्टि में ‘तेरी दीवानी’ एक प्रकार से आत्मा के परमात्मा से मिलन की कहानी है-
‘तूने क्या कर डाला/ मर गई मैं मिट गई मैं/ हो री हां हां री हो गई मैं तेरी दीवानी/ के मैं रंग रंगीली दीवानी/ के मैं अलबेली मैं मस्तानी/ गाऊं बजाऊं सबको रिझाऊं/ हे मैं दीन धर्म से बेगानी/ के मैं दीवानी मैं दीवानी’।

जितने भी जीने के दो नम्बरी तरीके हैं जो इतिहास में सकारात्मक असर न छोड़ें मैं उनसे एकदम अलग हूं। सकारात्मक असर उन्होंने ही छोड़ा है जिन्होंने मनुष्यत्व धर्म का निर्वहन किया है और प्रकृति को सम्मान दिया है। अगर प्रकृति ने हमें बनाया तो हम भी कुछ ऐसा कार्य करें कि मरणोपरान्त लोग हमें याद कर थू थू न करें।
जीने का यही सार हमारे संगीत में भी परिलक्षित होता है। और ऐसा तब होता है जब आप प्राकृतिक रूप से भी वैसे हों। अगर आप स्वभावत: ऐसे नहीं है तो फिर आप दिमाग लगाकर ऐसा करते हैं। इसमें आप अपने प्रयासों में कहीं न कहीं चतुराई भी जोड़ते हैं। लोगों को आपके हर काम में इस चतुराई का पता अंतत: लग ही जाता है। कई लोग ऐसे भी मिलते हैं जिनको अहंकार न होने का अहंकार होता है- ‘आई एम रियली पोलाइट एंड हंबल’, तो वो इस अकड़ में अलग से जी रहे हैं। ऐसे बन बनकर दिख रहे लोगों को आप अलग ही पहचान सकते हैं। नहर बनती है नदी होती है। नदी अपने नैसर्गिक प्रवाह में होती है अनवृत्त अविरल। हम ऐसे ही संगीत में जीते गए वैसे ही शब्द और धुन मिलती गर्इं। तेरी दीवानी और सैंया एलबम के बाद अगड़बम ने तो अपना जलवा दिखाया ही। जहां आप शिव का नाम लेंगे तो उस गाने को मंदिरों तक ही सीमित कर दिया जाता है लेकिन अगड़बम ने उसे विदेशों तक में फैलाया और कैलासा संगीत को परिचय कराया। विदेशों में कई बड़े नामवाले डीजे ने अगड़बम को मिक्सिंग कर प्रस्तुत किया। डीजे पॉल ओकनफोल्ड ने भी इसे मिक्स किया है।
अगड़बम ने कैलासा संगीत को एक नया विस्तार दिया और जो गाने देवालयों/मंदिरों तक सीमित थे वे सड़कों क्लबों तक चले गए और उसने हर जेनरेशन को छुआ। इस तरह यह एक गाना नहीं था बल्कि इससे कैलासा संगीत की एक परंपरा का प्रारंभ हो गया था।
हमारा एक गाना आया था ‘आदियोगी’ जिसे प्रसून जोशी ने लिखा। संगीत मैंने तैयार किया था और गाया भी था- ‘दूर उस आकाश की गहराइयों में/ एक नदी से बह रहे हैं आदियोगी।’ यह पहली बार कोयम्बटूर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और आध्यात्मिक गुरु सद्गुरु की उपस्थिति में रिलीज किया गया था। बड़ा ही ऐतिहासिक, अद्भुत और अलौकिक था वह दृश्य।


आदियोगी तो शिवगान है। विदेश में भी आपने खूब प्रस्तुत किया। दूसरे देशों के लोग, अलग भाषाएं, परिवेश- वो आपके संगीत को कैसे समझ जाते हैं।
– संगीत हृदय की भाषा बन जाती है। और यह जो भारतीयता है न साहेब वह भाषाओं से परे भावों में जीने वाली संस्कृति है। आप यही देखिए कि संस्कृति के मंत्रोच्चार सभी लोग शब्दश: थोड़े ही समझ पाते हैं लेकिन यूरोप, अमेरिका, जर्मनी में सब हम संस्कृत के शब्द अपने संगीत में उच्चारित करते हैं तो अपने आप उनके जीवन का कल्याण हो जाता है।
येषां न विद्या न तपो न दानं, ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्म:।  ते मर्त्यलोके भुविभारभूता, मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति॥ जब मैंने संयुक्त राष्ट्रसंघ के एक मुख्य कार्यक्रम में ये शब्द बोले तो आप हैरान होंगे कि वहां मौजूद एक सौ अस्सी देशों के प्रतिनिधियों ने जय जयकार की। इसलिए नहीं यह उनको सुनने में मनोरंजक या लयबद्ध लगा- बल्कि इन शब्दों का प्रभाव होता है धमनियों तक। यह आत्मा पर गहरा असर छोड़ता है। यही भारतीयता का प्रभाव है जिसे विश्व अब महसूस कर रहा है और आकर्षित हो रहा है।

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