पिछले तीस वर्षों में लगभग चार करोड़ गिद्धों की मृत्यु।

गिद्धों की नौ प्रजातियां भारत में थीं, जिनमें से अधिकांश विलुप्त होने की कगार पर पहुँच चुकी हैं। यदि यही हाल रहा तो एक दिन भारत से पूरी तरह विलुप्त हो जाएंगे गिद्ध, क्योंकि गिद्धों की प्रजनन दर बहुत धीमी होती है। पांच वर्ष की आयु पूरी करने के बाद ही उनमें प्रजनन क्षमता आती है। एक बार जोड़ा बना लेने के बाद ये जीवन भर साथ रहते हैं और एक वर्ष में एक ही अंडा देते हैं। इसलिए इनका संरक्षण और इनकी संख्या में वृद्धि करना धीमी और कठिन प्रक्रिया है।

गिद्धों की प्रकृति में महत्वपूर्ण भूमिका

गिद्ध प्राकृतिक सफाईकर्मी हैं। पर अब गिद्ध कम ही दिखते हैं। 1990 के दशक के बाद जितनी तीव्रता से गिद्ध विलुप्त हुए हैं, शायद धरती से किसी भी जीवधारी की प्रजाति इतनी तेजी से विलुप्त नहीं हुई है। गिद्ध, मरा हुआ जानवर खाने वाले पक्षियों की बाईस प्रजातियों में से एक है, जो मुख्य रूप से उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में रहते हैं। ये पर्यावरण से कचरा हटाकर उसे साफ रखने में मदद करते हैं। ये वन्यजीवों की बीमारियों को नियंत्रण में रखने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। मगर गिद्धों की संख्या पिछले दो दशक में एकाएक घट गई है।

गिद्धों की संख्या में आई 97 फीसद तक की कमी

दिल्ली उच्च न्यायालय ने दिसंबर 2022 में केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन (सीडीएससीओ) को भारत में घटती गिद्ध आबादी के लिए जिम्मेदार दवाओं को गैरकानूनी घोषित करके गिद्धों की सुरक्षा और संरक्षण के लिए कार्रवाई करने का निर्देश दिया था। इसने इस तथ्य पर गंभीरता से ध्यान दिया था कि पशु चिकित्सा में एनएसएआइडीएस (गैर-स्टेरायड एंटी-इनफ्लैमेटरी ड्रग्स) जिन्हें दर्द निवारक, सूजनरोधी दवा भी कहते हैं, का उपयोग, जैसे डिक्लोफेनाक, एसीक्लोफेनाक, केटोप्रोफेन, निमसुलाइड आदि के कारण गिद्धों की संख्या में 97 फीसद तक की कमी आई है। पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री ने भी सार्वजनिक रूप से संकेत दिया था कि गिद्धों की आबादी तीन दशकों से अधिक समय में चार करोड़ से घट कर केवल उन्नीस हजार रह गई है।

तीस सालों में मारे गए चार करोड़ गिद्ध

पिछले तीस वर्षों में लगभग चार करोड़ गिद्धों की मृत्यु हुई है। इसका अर्थ है कि जहरीली दवाओं के कारण भारत में हर महीने लगभग एक लाख गिद्धों की मृत्यु हो रही है। इनकी विलुप्ति का मूल कारण पशु चिकित्सा में प्रयुक्त दवा डाइक्लोफिनेक है, जो कि पशुओं के जोड़ों का दर्द मिटाने में मदद करती है। जब यह दवा खाया हुआ पशु मर जाता है और उसके बाद गिद्ध उसका भक्षण करते हैं तब उनके गुर्दे काम करना बंद कर देते हैं और गिद्ध मर जाते हैं। वातावरण में कीटनाशकों और भारी धातुओं की उपस्थिति भी गिद्धों की मृत्यु का एक प्रमुख कारण है। बिजली के तारों से टकराना और पेड़ों की कटाई से उनके प्राकृतिक आवासों का नष्ट होना भी उनकी घटती संख्या का कारण है।

एक अध्ययन के मुताबिक ग्रामीण क्षेत्रों में तेंदुओं द्वारा मानव बस्तियों पर बढ़ते आक्रमण की घटनाओं के पीछे गिद्धों की घटती जनसंख्या है। कुत्तों का शिकार करने वाले तेंदुओं की जनसंख्या में वृद्धि हुई है। कुत्तों के शिकार के लिए वे मानव बस्तियों में धावा बोलते और बहुधा मानव बच्चों को अपना शिकार बना लेते हैं। गिद्ध बीमारियों को फैलने से रोकने के साथ ही जंगली कुत्तों जैसे अन्य शव खाने वालों की संख्या को सीमित रखने में भी मददगार साबित होते हैं। गिद्धों की संख्या, जो 1990 के दशक में तकरीबन चालीस लाख थी, वे बारह लाख टन मांस वार्षिक दर से समाप्त करते थे। आज उनकी 95 से 99 फीसद आबादी खत्म हो चुकी है।

एक नए अध्ययन से पता चला है कि 1990 के दशक से भारतीय गिद्धों का लगभग विलुप्त होना मनुष्यों के लिए भी घातक साबित हुआ था। इससे उन जगहों में मृत्यु दर चार फीसद बढ़ गई, जहां कभी इन पक्षियों का बसेरा हुआ करता था। 1990 से 2000 के दशक के बीच गिद्धों की संख्या में 90 से 95 फीसद से अधिक की गिरावट आई। इस दशक के दौरान डाइक्लोफिनेक का उपयोग किसानों ने अपने मवेशियों के इलाज के लिए किया था।

इस दवा से मवेशी और मनुष्य दोनों के लिए कोई खतरा नहीं था, लेकिन इससे उपचारित मरे पशुओं को जो गिद्ध खाते थे, उनके गुर्दे खराब होने लगे। कुछ ही हफ्तों में उनकी मृत्यु होने लगी। गिद्धों की संख्या में कमी होने के कारण मृत पशुओं को जंगली कुत्तों और चूहों ने खाना शुरू किया। मगर ये गिद्धों की तरह पशुओं के शव को पूरी तरह खत्म करने में सक्षम नहीं होते हैं। उनके द्वारा छोड़े गए मांस अवशेष रोगाणुओं से भरे हुए थे, जो बाद में पीने के पानी में फैल गए। शोधकर्ताओं का अनुमान है कि 2000 से 2005 के बीच गिद्धों को हानि पहुंचने के कारण पांच लाख अतिरिक्त मानव मौत हुई हैं।

गिद्ध प्राकृतिक तौर पर सफाई में मदद करते हैं

गिद्धों का समूह एक जानवर के शव को लगभग चालीस मिनट में साफ कर सकता है। ये जानवरों की हड्डियों को भी निगल लेते हैं। गिद्धों के पेट का अम्ल इतना शक्तिशाली होता है कि वह खतरनाक जीवाणुओं को भी नष्ट कर सकता है, जबकि दूसरी कई प्रजातियां इन जीवाणुओं के प्रहार से मर जाती हैं। इनकी आयु लगभग पचास से पचपन साल होती है।

वन्यजीव छायाकार रूपेल्स वेंचर ने 1973 में आइवरी कोस्ट में 37,000 फुट की ऊंचाई पर गिद्धों को उड़ते हुए देखा था। माउंट एवरेस्ट की ऊंचाई 29,029 फीट या थोड़ा अधिक है। इतनी ऊंचाई पर आक्सीजन की कमी से ज्यादातर दूसरे पक्षी मर जाते हैं, पर गिद्ध असाधारण वातावरण में भी जी सकते हैं। ये एक हजार किलोमीटर तक आसानी से उड़ान भर सकते और सौ किलोमीटर तक की सटीक दृष्टि रखते हैं।

गिद्ध जल स्रोतों को भी दूषित होने से रोकते हैं

अध्ययनों में गिद्धों के हीमोग्लोबीन और हृदय संरचना से संबंधित कई ऐसी विशिष्टताओं के बारे में पता चला है, जिनके चलते प्रतिकूल वातावरण में भी वे सांस ले सकते हैं। ‘इकोलाजिकल इकोनामिक्स’ 2013 में प्रकाशित एक लेख के अनुसार गिद्धों की सेवाओं का मूल्य सालाना अरबों डालर है।

फरवरी 2023 में पक्षियों पर की गई पहली समकालीन जनगणना के अनुसार दक्षिण भारतीय तीन राज्यों तमिलनाडु, केरल और कर्नाटक में मात्र 246 गिद्ध विद्यमान हैं। भारत के पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने अब गिद्धों के संरक्षण के लिए गिद्ध कार्य योजना 2020-25 शुरू की है। उत्तर प्रदेश में एक अत्याधुनिक जटायु संरक्षण और प्रजनन केंद्र (जेसीबीसी) स्थापित किया गया, जो विश्व में अपनी तरह का पहला केंद्र है।

एशियाई गिद्ध वन्य जीव संरक्षण अधिनियम के तहत संरक्षित, फिर भी ये हाल

प्रकृति संरक्षण के लिए अंतरराष्ट्रीय संघ (आइयूसीएन) द्वारा गंभीर रूप से संकटग्रस्त जीव के रूप में इस पक्षी को सूचीबद्ध किया गया है। जटायु संरक्षण एवं प्रजनन केंद्र (जेसीबीसी) का लक्ष्य प्रजातियों के स्थायी संरक्षण को सुरक्षित करने के लिए पंद्रह वर्षों में कम से कम चालीस गिद्धों को कैद में रखना है।

वन विभाग ने तकनीकी मार्गदर्शन के लिए मुंबई नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी के साथ भागीदारी की है। भारत में गिद्धों की मौत के कारणों का अध्ययन करने के लिए 2001 में हरियाणा के पिंजौर में एक गिद्ध देखभाल केंद्र (वीसीसी) स्थापित किया गया था। वर्तमान में भारत में नौ गिद्ध संरक्षण और प्रजनन केंद्र (वीसीबीसी) हैं, जिनमें से तीन बांबे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी द्वारा प्रशासित हैं। मगर लाख प्रयासों के बावजूद अपेक्षित सफलता नहीं मिल पा रही है।(एएमएपी)