आपका अखबार ब्यूरो।
मुम्बई की सांस्कृतिक संस्था ‘बतरस’ ने हर माह के दूसरे शनिवार के अपने मासिक कार्यक्रमों की श्रिंखला में ११ नवम्बर को बालदिवस के उपलक्ष्य में ‘चाचा नेहरू की याद में’ नाम से एक सुव्यवस्थित आयोजन किया। शुरुआत हुई रॉबर्ट फ़ास्ट लिखित व कवि बच्चन द्वारा अनूदित चार पंक्तियों के उस मुक्तक से, जो नेहरूजी को इतनी प्रिय था कि सदा ही पढ़ने-लिखने वाली मेज़ के ऊपर उनके सामने लगा रहता था –
‘गहन सघन मनोहर वनतरू मुझको रोज़ बुलाते हैं, किंतु किये जो वादे मैंने याद मुझे आ जाते हैं…’।
इसे उतने ही मनभावन रूप में गाके पेश किया बेहतरीन गायिका के रूप में उभरती हुई दीपिका गौड़ ने।
इसके बाद मुख्य वक्ता के रूप में मौजूद प्रसिद्ध फ़िल्मकार अविनाश दास का सुबुद्ध वक्तव्य हुआ, जिसका ख़ास फ़ोकस रहा – नेहरूजी के व्यक्तित्त्व में भविष्यद्रष्टा एवं साहसिकता के प्रकाशन पर…। इस मुख्य डोर को पकड़े हुए उन्होने आज़ादी के पहले से लेकर प्रधानमंत्री होने के बाद के १७ सालों के नेहरूजी के योगदानों का एक व्यावहारिक आकलन प्रस्तुत किया। अविनाशजी ने पंडितजी के कार्यों एवं उनके पीछे निहित विचारों तथा कार्य-पद्धतियों को सोदाहरण सामने रखा। गांधी-सरदार-जिन्ना आदि समकालीन अगुआ नेताओं के साथ पंडितजी के सम्बंधों एवं इनके आपसी वैचारिक-व्यावहारिक अंतरों पर भी अपने विचार रखे…।
अविनाशजी के वक्तव्य में प्रगतिवादी धारा के विचारों की छाप सेइनकार नहीं किया जा सकता, लेकिन इसी से वक्तव्य पर हुई समूह-चर्चा में बेटी इंदिरा को अपने प्रभाव से पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाके कांग्रेसी वंशवाद की नींव रखने के योगदान को भी सभा की मौन-सम्मति मिलनी ही थी। ऐसे कुछेक और मामले भी सामने आये, जिससे ‘बतरस’ की तटस्थ-स्वस्थ परम्परा का परिचय मिलता है।
‘बतरस’ के संस्थापक सदस्यों में एक, प्रसिद्ध रचनाकार, सीरियल लेखक एवं रंगकर्मी विजय पंडित ने नेहरूजी की आत्मकथा ‘मेरी कहानी’ से १९२१ में हुई उनकी पहली जेल-यात्रा पर आधारित अंश प्रस्तुत किया, जिसमें उस वक्त एक तरफ़ राष्ट्रीयता का जुनून था, तो साथ ही हिंदू एवं मुस्लिम राष्ट्रीयता के भेद भी थे।इस बीच पंडितजी के हिंदुस्तानी राष्ट्रीयता जैसे मध्यम एवं वाजिब मार्ग की चेतना चिरकाल में अनुकरणीय है…।
इसके बाद रस-परिवर्तन के लिहाज़ से हरिशंकर परसाई लिखित व्यंग्य ‘एक लड़की पाँच दीवाने’ के तीसरे भाग की पाठ-प्रस्तुति हुई, जो शताब्दी स्मरण के रूप में पूरे साल चलने वाली ‘बतरस’ कीयोजना का हिस्सा है। इसे सजीव रूप में पेश किया – नियमित व समर्पित रंगकर्मी एवं सुपरिचित मीडिया-अभिनेता अमन गुप्ता ने। यह कहानी पुरानी होकर भी इतनी लज़ीज़ है कि आज भी उतना ही आस्वाद देती है…।
इस दीवानों की कहानी के बाद ‘बतरस’ भी मुड़ी – नेहरूजी के रूमानी पक्ष की तरफ़…और तीन-चार सरनाम साथिनों में से ‘एडविना-नेहरू’ के प्रेम-प्रकरण प्रस्तुत हुए। इनके पत्रों पर तो प्रतिबंध लग गया है, पर युवा बतरसी शाइस्ता खान ने उनके विविधरूपी प्रसंगों को लोगों के उल्लेखों से आकलित करके एक नियोजित कहानी बनायी और बड़ी जीवंतता से प्रस्तुत किया। इसी अंतरंग संदर्भ से बावस्ता विचार रखने की योजना से कवि व विचारक अमित गौड़ ने कहा कि एक तरफ़ ऐडविना…आदि जैसी नायिकाएँ हैं, तो दूसरी तरफ़ दिवंगत सहधर्मिणी कमला नेहरू के अस्थि-कलश को मृत्यु-पर्यंत ढाई दशकों तक अपने सिरहाने रखने जैसे उदाहरण भी हैं, जो उनकी संवेदन-सिक्त एकनिष्ठता की मिसाल भी हैं। गौड़जी ने नेहरूजी के सम्यक् अंतस् व्यक्तित्व का संक्षिप्त, पर ठोस विवेचन करते हुए उनके कविहृदय होने को ही उनकी संभावना व सीमा बताया…तथा अतिरिक्त को तलाशती उनकी गहन संवेदना का वाजिब निरूपण भी किया…।
यह तो सर्वविदित है कि नेहरूजी को लिखने की फ़ुरसत देती ही न थी ज़िंदगी, इसलिए उनका प्रायः सारा लेखन जेल में रहने के दिनों में ही हुआ], जिसमें बहुत महत्त्वपूर्ण है बेटी (इंदु) के नाम लिखे पिता (जवाहर) के पत्र, जो ‘महज़ इतिहास की जानकारी ही नहीं देते, अपने तेवर, अपनी दृष्टि और अपनी रचनात्मकता से इतिहास गढ़ते हैं’। सबसे सक्रिय बतरसी डाक्टर मधुबाला शुक्ल ने ‘धरती कैसे बनी’ नामक जो लेख पढ़ा, उसमें धरती के साथ सौरमंडल क्या है, इंसान और पशुओं के जीवन कैसे शुरू हुए और दुनिया में सभ्यताएँ कैसे अस्तित्त्व में आयीं और विकसित हुईं…आदि की गम्भीर जानकारियाँ बड़ी सरलता-सुगमता से समझाई गयी हैं। डाक्टर शुक्ला ने इसे जोश-खरोश भरे उत्साह के साथ सुनाया, जो असरकारक भी बन पड़ा, लेकिन १२ साल की बच्ची के लिए लिखा गया वह सब विषयानुसार सहज-शालीनता से सुनाया जाता, तो ज्यादा सलीके से हृदयंगम होता…!!
देश के इतने बड़े नायक-निर्माता पर ज़ाहिर है कि ढेरों साहित्य लिखा गया है, जिसमें से समय-सीमा के मुताबिक़ बानगी के तौर पर कुछ कविताएँ प्रस्तुत हुईं…। युवा रंगकर्मी व अभिनेता विश्व भानु ने बाबा नागार्जुन की विख्यात (बल्कि कुख्यात भी) कविता ‘वतन बेच कर चाचा नेहरू फूले नहीं समाते हैं’के साथ श्रीकांत वर्मा की ‘आधे घंटे की बहस’ भी सुनायी – पूरे अभिनय-अंदाज के साथ, जो कभी कुछ ‘अति’ को भी छू गया। और शहर के नामचीन कवि रासबिहारी पांडेय ने शुरुआत निदा फ़ाज़ली के ढाँसू विनोद वाले दोहे से की –‘स्टेशन पर ख़त्म की भारत तेरी खोज, नेहरू ने लिखा नहीं, कुली के सर का बोझ। फिर मशहूर शायर मजरूह की वह कविता भी सुनायी, जो आक्रामकता के चक्कर में –‘कॉमन वेल्थ का दास है नेहरू, मार लो साथी जाने न पाये’ में गाली व गुंडा हो गयी है। पांडेयजी ने प्रसिद्ध कवि शैलेंद्र की कविता के साथ अबरार किरतपुरी की दो पंक्तियाँ भी सुनायीं –‘जान-ए-हिन्दोस्तान था नेहरू, जैसे उसकी ज़बां में था जादू’।
आयोजन सम्पन्न भी हुआ आरम्भ करने वाली दीपिका गौड़ के ही लताजी की अनुहारि स्वरूप सधे सुर-अंदाज-ओ-आवाज में गाये उस सर्वाधिक लोकप्रिय गीत से, जिसे सुनकर नेहरू की आँखों में सचमुच आंसू आ गये थे –‘ऐ मेरे वतन के लोगो, ज़रा आँख में भर लो पानी…’।
संचालन के दौरान सत्यदेव त्रिपाठी ने जनमानस में बनी-फैली नेहरू-विषयक चर्चाओं एवं छबियों के ऐसे मज़ेदार प्रसंग सुनाते रहे…कि ‘किंवदंतियों में नेहरू’ जैसा एक सुनियोजित विषय ही बन गया। त्रिपाठीजी ने समकालीन साहित्यकारों-कलाकरों के साथ पंडितजी के आत्मीय व सरोकार-जन्य सम्बंधों की कई बानगियाँ भी साझा कीं। इस तरह पूरा संचालन एक पूरक वक्तव्य का भी सिला बन गया। कार्यक्रम की शुरुआत में मुख्य अतिथि अविनाश दास का आँखों देखा एवं सहभागी के रूप में जीया-भोगा परिचय तथा अंत में सभी को धन्यवाद दिया – देश के प्रसिद्ध रंगकर्मी और खाँटी बतरसी विजय कुमार ने अपनी ही निराबानी अदा में…।
दीपावली की पूर्व संध्या पर सड़कों की भारी भीड़-भाड़ व भाग-दौड़ के चलते कार्यक्रम लगभग एक घंटा देर से शुरू हुआ और इतने बड़े त्योहार की तैयारियों के चलते श्रोता भी काफ़ी कम रहे…। लेकिन भारत के पहले प्रधानमंत्री के स्वप्न-द्रष्टा एवं गुण-दोषमय रूपों की मुकम्मल न सही, एक हल्की-फुल्की तस्वीर नुमाया हो सकी, जिसे आयोजन की अच्छी सफलता माना जा सकता है।