आतंकवाद के दिनों में किया था संवाद का साहसिक प्रयास
विश्वभर में राष्ट्रीय सिख संगत के कार्य को दिया विस्तार
सरदार चिरंजीव सिंह का जन्म 1 अक्तूबर, 1930 को पटियाला में किसान हरकरण दास (तरलोचन सिंह) तथा द्वारकी देवी (जोगेन्दर कौर) के घर में हुआ। मां सरकारी विद्यालय में पढ़ाती थीं। उनसे पहले दो भाई और भी थे; पर वे बाल्यकाल में ही ईश्वर को प्यारे हो गए। मंदिरों और गुरुद्वारों में मन्नत मांगने के बाद जन्मे इस बालक का नाम मां ने चिरंजीव रखा। चिरंजीव बचपन से ही सब धर्म और पंथों के संतों के पास बैठते थे। वर्ष 1944 में कक्षा सात में पढ़ाई के दौरान वे अपने बाल सखा रवि के साथ पहली बार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा गये। वहां के खेल, अनुशासन, प्रार्थना और नाम के साथ ‘जी’ लगाने से वे बहुत प्रभावित हुए। शाखा में वे अकेले सिख थे। वर्ष 1946 में वे प्राथमिक वर्ग और फिर वर्ष 1947, 50 और 52 में तीनों वर्ष के संघ शिक्षा वर्गों में गये। वर्ष 1946 में गीता विद्यालय, कुरुक्षेत्र की स्थापना पर सरसंघचालक श्री गुरुजी के भाषण ने उनके मन पर अमिट छाप छोड़ी। गला अच्छा होने के कारण वे गीत कविता आदि खूब बोलते थे। श्रीगुरुजी को ये सब बहुत अच्छा लगता था। अतः उनका प्रेम चिरंजीवजी को खूब मिला।
आदरणीय सरदार चिरंजीव सिंह जी के देहावसान के साथ राष्ट्र के लिए समर्पित एक प्रेरणादायी जीवन की इहलोक यात्रा पूर्ण हुई है।
आजीवन संघ के निष्ठावान प्रचारक रहे सरदार चिरंजीव सिंह जी ने पंजाब में दशकों तक कार्य किया। तत्पश्चात् राष्ट्रीय सिक्ख संगत के कार्य के द्वारा उन्होंने पंजाब… pic.twitter.com/SUeUR2PGDU— RSS (@RSSorg) November 20, 2023
सत्याग्रह कर दो मास जेल में भी रहे
वर्ष 1948 के प्रतिबंध काल में वे सत्याग्रह कर दो मास जेल में रहे। वर्ष 1952 में चिरंजीव सिंह ने राजकीय विद्यालय, पटियाला से बीए किया। इसके बाद वे अध्यापक बनना चाहते थे, पर तत्कालीन विभाग प्रचारक बाबू श्रीचंदजी के आग्रह पर वर्ष 1953 में वे प्रचारक बन गये। वे मलेर कोटला, संगरूर, पटियाला, रोपड़, लुधियाना में तहसील, जिला, विभाग व सह संभाग प्रचारक रहे। लुधियाना 21वर्ष तक उनका केन्द्र रहा। संघ शिक्षा वर्ग में वे 20 वर्ष शिक्षक और चार बार मुख्य शिक्षक रहे। वर्ष 1984 में उन्हें विश्व हिन्दू परिषद, पंजाब का संगठन मंत्री बनाया गया। इस दायित्व पर वे वर्ष 1990 तक रहे।
अमृतसर में ‘राष्ट्रीय सिख संगत’ का गठन
इस समय ‘पंजाब कल्याण फोरम’ बनाकर सभी पंजाबियों में प्रेम बनाये रखने के प्रयास किये जा रहे थे। वर्ष 1982 में अमृतसर में एक धर्म सम्मेलन भी हुआ। वर्ष 1987 में स्वामी वामदेव जी व स्वामी सत्यमित्रानंद जी के नेतृत्व में 600 संतों ने हरिद्वार से अमृतसर तक यात्रा की और अकाल तख्त के जत्थेदार ज्ञानी दर्शन सिंह जी से मिलकर एकता का संदेश गुंजाया। अक्तूबर, 1986 में दिल्ली में एक बैठक हुई। उसमें गहन चिंतन के बाद गुरु नानकदेव जी के प्रकाश पर्व (24 नवंबर, 1986) पर अमृतसर में ‘राष्ट्रीय सिख संगत’ का गठन हो गया। सरदार शमशेर सिंह गिल इसके अध्यक्ष तथा चिरंजीवजी महासचिव बनाये गये। वर्ष 1990 में शमशेरजी के निधन के बाद चिरंजीवजी इसके अध्यक्ष बने।
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सरदार चिरंजीव सिंह ने संगत के काम के लिए देश के साथ ही इंग्लैड, कनाडा, जर्मनी, अमरीका आदि में प्रवास किया। उनके कार्यक्रम में हिन्दू और सिख दोनों आते थे। उनके प्रयासों से वर्ष 1999 में ‘खालसा सिरजना यात्रा’ पटना में सम्पन्न हुई। वर्ष 2000 में न्यूयार्क के ‘विश्व धर्म सम्मेलन’ में वे 108 संतों के साथ गये, जिनमें आनंदपुर साहिब के जत्थेदार भी थे। ऐसे कार्यक्रमों से संगत का काम विश्वभर में फैल गया। इसे वैचारिक आधार देने में पांचवें सरसंघचालक स्व. कुप्.सी. सुदर्शन का भी बड़ा योगदान रहा।
वर्ष 2003 में बढ़ती आयु के कारण उन्होंने अध्यक्ष पद छोड़ दिया। इसके बाद वे पहाड़गंज, दिल्ली में संगत के कार्यालय में वर्ष 2021 तक रहे। तत्पश्चात वे लुधियाना संघ कार्यालय में आ गये। चिरंजीव पिछले कुछ महीनों से अस्वस्थ चल रहे थे। सोमवार 20 नवंबर को प्रातः 8:30 बजे लुधियाना में उन्होंने अंतिम सांस ली।(एएमएपी)