डॉ. मयंक चतुर्वेदी ।
प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद् (ईएसी-पीएम) की धार्मिक आधार पर वैश्विक जनसंख्या की स्टडी क्या आई, भारत के प्रबुद्ध वर्ग में चिंता की लकीरें खिंच गई हैं। क्या यह चिंता बेकार है, जो लोग इस आंकड़े की गंभीरता समझकर भविष्य में भारत के भारत रहने पर भी संदेह व्यक्त कर रहे हैं? क्या ये यूं हीं हैं? मजहब के आधार पर जिस कौम ने भारत विभाजन कराया, उस इस्लाम को माननेवाले मुसलमानों की वर्तमान भारत में 65 सालों के दौरान आबादी में 43.15 प्रतिशत की बढ़ोतरी को हल्के में लिया जाना चाहिए? या फिर यह जनसंख्या का विस्तार एक सामान्य बात है? आज इस प्रकार के अनेक प्रश्न हैं, जिनके उत्तर खोजने एवं स्वाधीनता (1947) के बाद से बीते 78 सालों की समीक्षा व भविष्य का चिंतन करते वक्त वर्तमान भारत की बहुसंख्यक हिन्दू आबादी अपने को परेशान महसूस कर रही है!
गहराई में जाकर देखा जाए तो यह परेशानी यूं ही नहीं है। भारत के सामने आज विश्व के कई देशों के उदाहरण मौजूद हैं, जहां इस्लाम को मानने वालों की जनसंख्या जैसे ही 20 प्रतिशत से अधिक हो जाती है, वह अराजकता की ओर बढ़ने लगती है। इसके बाद एक स्थिति ऐसी आती है कि वह पूरा मुल्क ही इस्लामिक हो जाता है। इस संदर्भ में अब तक हुए सभी अध्ययन यही बताते हैं कि दो-चार देशों को छोड़कर कम संख्या होने पर भी इस्लाम को मानने वाले किसी भी देश में शांति से रहने में भरोसा नहीं करते हैं।
बर्कले फोरम पर प्रो. जॉक्लिने सेसरी का इस्लाम और इस्लामफोबिया पर एक अनुसंधानपरक शोध लेख पढ़ने को मिला, ‘‘पश्चिमी यूरोप में शरणार्थी और इस्लामोफोबिया: प्रतिगामी प्रभाव’’ में वे लिखती हैं कि मुस्लिम देशों से शरणार्थी अक्सर बहुत ही धर्मनिरपेक्ष स्थानों में पहुंचते हैं, जहां नागरिक अपने दैनिक सामाजिक संपर्क या नागरिक कार्यों को समझने के लिए शायद ही कभी किसी धर्म की पहचान करते हैं। यह इस तथ्य के बिल्कुल विपरीत है कि ये शरणार्थी उन देशों (जैसे सीरिया और सोमालिया) से आते हैं, जहां इस्लाम सामाजिक और राष्ट्रीय पहचान का प्रतीक है। (यानी इन दशों के अलावा भी कई देशों से आते हैं)….मुस्लिम देशों से विस्थापितों की आमद तनाव को बढ़ा देती है। इस संबंध में, इस बात पर ज़ोर देना ज़रूरी है कि यूरोप भर के सभी मुसलमान, शरणार्थियों से लेकर नागरिकों तक, किसी भी अन्य धार्मिक समूहों की तुलना में धार्मिक रूप से सबसे अधिक मुखर हैं, जो इस प्रमुख समझ को बढ़ावा देता है कि “इस्लाम समस्याग्रस्त है।” परिणामस्वरूप, इस्लाम को सांस्कृतिक और राजनीतिक एकीकरण में बाधा के रूप में देखा जाता है।
युरोप में राजनीतिक पार्टियां मानती हैं इस्लाम को खतरा
फिर आगे लिखा, अल-कायदा से लेकर आईएसआईएस तक कट्टरपंथी इस्लामी समूहों के अंतरराष्ट्रीय आयाम ने यूरोपीय नागरिकों की असुरक्षा को बढ़ा दिया है, जो इस्लाम को एक खतरे के रूप में देखते हैं। न केवल चरम दक्षिणपंथी पार्टियां, बल्कि मुख्यधारा की पार्टियां भी अब मुस्लिम शरणार्थियों को आतंकवादी जोखिम के रूप में मानती हैं, …क्योंकि इस्लाम अपराध, आतंकवाद, महिलाओं के उत्पीड़न, सम्मान हत्या, पिछड़ेपन और असहिष्णुता से जुड़ा हुआ है। “इस्लामिक आतंक”, “मुस्लिम चरमपंथी”, या “इस्लामवाद का कैंसर/नासूर” जैसे शब्द यूरोपीय समाचार पत्रों में नियमित रूप से दिखाई देते हैं।… यूरोप में “यौन जिहाद” का डर बढ़ रहा है, जिसमें आप्रवासियों और शरणार्थियों से यौन हिंसा का डर इन आप्रवासियों द्वारा सफेद यूरोपीय महिलाओं को यौन और सांस्कृतिक रूप से “कलंकित” करने के डर के साथ जुड़ा हुआ है। जर्मनी के धुर दक्षिणपंथी आंदोलन ‘पैट्रियटिक यूरोपियंस अगेंस्ट द इस्लामिकाइजेशन ऑफ द ऑक्सिडेंट’ (पेगिडा) ने यूरोप में आप्रवासियों (विशेषकर मुस्लिम आप्रवासियों) द्वारा पैदा किए जाने वाले यौन और नैतिक खतरों के संयोजन को दर्शाने के लिए “रेपफ्यूजी” शब्द गढ़ा। “रेपफ्यूजी” की इस अवधारणा का एक दृश्य फरवरी 2016 में पोलिश पत्रिका Wsieci के कवर के माध्यम से प्रदर्शित किया गया था, जिसमें यूरोपीय ध्वज में एक गोरी महिला पर भूरे हाथों से हमला किया गया था, और इसका शीर्षक “द इस्लामिक रेप ऑफ यूरोप” था। हालांकि प्रो. जॉक्लिने सेसरी मानवता के लिए यह भी बताती हैं कि सभी मुसलमान एक जैसे नहीं होते और उनकी एक समान तुलना करना गलत होगा, किंतु क्या हम इस धारणा को तोड़ सकते हैं, जो बहुसंख्यक इस्लामवादियों ने अपने आचरण से पैदा की है?
पोलिश पत्रिका में “यूरोप का इस्लामी बलात्कार” शीर्षक के तहत फ्रंट कवर में दिखाया गया है कि कैसे एक श्वेत महिला पर तीन जोड़े काले रंग के पुरुषों द्वारा हमला किया जा रहा है। पत्रिका wSieci (द नेटवर्क) के कवर पर यूरोपीय संघ के झंडे में लिपटी एक गोरी महिला को दिखाया गया है। पुरुष हाथ उसके बालों और बांहों को पकड़ रहे हैं और जाहिर तौर पर झंडे को फाड़ने वाले हैं। पत्रिका के विज्ञापन में “मीडिया और ब्रुसेल्स अभिजात वर्ग यूरोपीय संघ के नागरिकों से क्या छिपा रहे हैं इसके बारे में एक रिपोर्ट” का वादा किया गया है।
जर्मनी के कोलोन में ही सैकड़ों महिलाओं का बलात्कार
अंदर, लेख में नए साल की पूर्व संध्या पर जर्मन शहर कोलोन में सैकड़ों महिलाओं के बलात्कार और यौन उत्पीड़न का जिक्र है। हमलों के सिलसिले में गिरफ्तार किए गए लोगों में से अधिकांश उत्तरी अफ्रीका से हाल ही में आए प्रवासी थे। रिपोर्ट की लेखिका अलेक्जेंड्रा रायबिंस्का ने लिखा, “कोलोन में नए साल की पूर्वसंध्या की घटनाओं के बाद पुराने यूरोप के लोगों को आप्रवासियों के बड़े पैमाने पर आगमन से उत्पन्न होने वाली समस्याओं का दर्दनाक एहसास हुआ।”
“हालांकि, चीजें गलत हो रही थीं, इसका पहला संकेत बहुत पहले ही मिल गया था। सहिष्णुता और राजनीतिक शुचिता के नाम पर उन्हें अब भी नज़रअंदाज़ किया गया या उनका महत्व कम कर दिया गया।” पत्रिका के इस संस्करण में “क्या यूरोप आत्महत्या करना चाहता है?” और “द हेल ऑफ़ यूरोप” शीर्षक से लेख भी छपे हैं। कोलोन में बड़े पैमाने पर यौन हमलों से निपटने को लेकर जर्मनी में तनाव बढ़ गया है, इसमें बताया गया कि नए साल (2016) की पूर्वसंध्या के बाद कोलोन में 1,000 से अधिक शिकायतें दर्ज की गईं, जिनमें से लगभग आधी यौन प्रकृति की थीं। ये हमले जर्मनी में प्रवासी विरोधी प्रतिक्रिया का एक प्रमुख कारक थे, जिसने हाल के महीनों में सैकड़ों, हजारों शरणार्थियों को स्वीकार किया है। कोलोन हमलों के वृत्तांतों ने अन्य यूरोपीय शहरों में महिलाओं को यौन हमलों के समान वृत्तांतों के साथ आगे आने के लिए प्रोत्साहित किया। यानी यहां महिलाओं पर हुए यौन हमलों में ज्यादातर शरणार्थियों की संलिप्तता पाई गई।
आप विचार करें; युरोप की यह तस्वीर आज से आठ साल पहले की है। इसके बाद युराप में कितना कुछ हुआ, वह भी भयंकर है। कहना होगा कि दुनिया के एक बहुत बड़े सभ्य समाज में आज इस्लाम को एक डर के रूप में देखा जाने लगा है। भले ही फिर इस्लाम को मानने वाले ज्यादातर लोग सभ्य और सुसंस्कृत हों, किंतु उनके बीच में से ही निकला असभ्य एवं जिहादी तबका (गैर मुसलमानों के साथ) जिस तरह का व्यवहार दुनिया भर में प्रस्तुत कर रहा है, उसने आज पूरी मानवता के लिए संकट खड़ा कर दिया है। तथ्य यह है कि कुछ मुसलमान चरमपंथी हैं और आतंकवादी कृत्यों को अंजाम देते हैं, इस दृष्टिकोण को प्रोत्साहित करने के लिए सामान्यीकृत किया जाता है कि इस्लाम सामान्य रूप से एक खतरे का प्रतिनिधित्व करता है। आतंकवादी घटनाओं, या सामूहिक हमलों, या बलात्कार के आंकड़ों में मुस्लिम पुरुषों की बढ़ती संख्या, या महिलाओं का उत्पीड़न, या शरिया कानून की कट्टरपंथी प्रथा का संदर्भ, आम तौर पर इस्लाम को एक खतरे के रूप में चित्रित करता है।
प्राचीन मध्य पूर्व बहुसंख्यक-ईसाई दुनिया से बहुसंख्यक-मुस्लिम दुनिया में कैसे बदल गया, जिसे हम आज जानते हैं, और इस प्रक्रिया में हिंसा ने क्या भूमिका निभाई? इस प्रश्न का उत्तर धार्मिक हिंसा और मुस्लिम दुनिया का निर्माण (प्रिंसटन यूनिवर्सिटी प्रेस), ऑक्सफोर्ड के ओरिएंटल स्टडीज संकाय के इस्लामी इतिहास के एसोसिएट प्रोफेसर सी. साहनेर की एक किताब ‘इस्लाम के तहत ईसाई शहीद: धार्मिक हिंसा और मुस्लिम दुनिया का निर्माण’ में बहुत ही विस्तृत रूप से दिया गया है। वे अपनी पुस्तक Christian Martyrs under Islam: Religious Violence and the Making of the Muslim World में प्राचीन काल और प्रारंभिक इस्लामी युग के दौरान ईसाई-मुस्लिम संबंधों में विकसित हो रहे संघर्षों पर गहरी नज़र डालते हुए लिखते हैं कि ईसाइयों ने प्रारंभिक ख़लीफ़ाओं के तहत कभी भी व्यवस्थित उत्पीड़न का अनुभव नहीं किया था, वे अरब विजय के बाद सदियों तक बड़े मध्य-पूर्व में आबादी का सबसे बड़ा हिस्सा बने रहे। फिर आगे जो क्रूर हिंसा की घटनाएं घटीं, इन्हीं ने ईसाई समाजों के भीतर इस्लाम के प्रसार में योगदान दिया और इस रक्तपात ने नए इस्लामी साम्राज्य को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसका कुल निष्कर्ष यही है कि हिंसा इस्लाम के मूल स्वभाव में है।
(लेखक ‘हिदुस्थान समाचार न्यूज़ एजेंसी’ के मध्य प्रदेश ब्यूरो प्रमुख हैं)