अमिताभ कांत ने चेताया।

भारत के जी-20 शेरपा अमिताभ कांत ने कहा कि प्रौद्योगिकी क्षेत्र में तेजी से आगे बढ़ने से भारत में बदलाव आएगा और देश को वैश्विक व्यवधानों के बीच स्वच्छ प्रौद्योगिकी विनिर्माण में अग्रणी बनने के अवसर का लाभ उठाना चाहिए।

अलवर (राजस्थान) में ‘सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट’ के वार्षिक अनिल अग्रवाल संवाद कार्यक्रम से इतर एक न्यूज़ एजेंसी को दिए साक्षात्कार में कांत ने यह भी स्वीकार किया कि जलवायु परिवर्तन के लिए ऐतिहासिक रूप से जिम्मेदार विकसित देशों से वित्तीय सहायता की कमी विकासशील देशों के नए जलवायु लक्ष्यों को प्रभावित कर सकती है।

कांत ने कहा कि वैश्विक व्यापार में व्यवधानों ने भारत के लिए एक महत्वपूर्ण अवसर उत्पन्न किया है। उन्होंने कहा, ‘‘ एक शून्यता है जिसे भारत भर सकता है। ऐसा कर हम आर्थिक वृद्धि को गति दे सकते हैं।’’ एकीकृत भुगतान अन्तरापृष्ठ (यूपीआई) का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि वित्तीय प्रौद्योगिकी (फिनटेक) जैसे क्षेत्रों में भारत ने उल्लेखनीय प्रौद्योगिकी प्रगति हासिल की है।

उन्होंने कहा, ‘‘ हमें सौर ऊर्जा, हरित हाइड्रोजन, बैटरी और इलेक्ट्रिक वाहनों सहित स्वच्छ-प्रौद्योगिकी विनिर्माण में इस सफलता को दोहराना चाहिए। यह भारत के लिए 2030 तक 500 गीगावाट अक्षय ऊर्जा क्षमता को पार करने का अवसर है। प्रौद्योगिकी व्यवधान अपरिहार्य हैं और हमें सबसे पहले इसमें अग्रणी बनना चाहिए। प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में तेजी से आगे बढ़ना भारत में बदलाव लाएगा।’’

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कांत ने आगाह किया कि अगर भारत इस अवसर का लाभ उठाने में विफल रहता है, तो वह आयात पर निर्भर हो जाएगा। उन्होंने कहा, ‘‘ अगर भारत इस अवसर का लाभ नहीं उठाता है, तो हम आयात के लिए चीन पर निर्भर हो जाएंगे। तब स्वच्छ प्रौद्योगिकी आयात पर हमारा खर्च तेल पर वर्तमान खर्च से कहीं अधिक होगा।’’

यह पूछे जाने पर कि क्या विकसित देशों से अपर्याप्त धनराशि मिलने से विकासशील देशों के नए जलवायु लक्ष्यों पर असर पड़ेगा कांत ने कहा, ‘‘ विकासशील देशों में जलवायु कार्रवाई के लिए वित्तपोषण करने के लिए जिम्मेदार विकसित देश पर्याप्त धनराशि उपलब्ध कराने में विफल रहे हैं। उन्होंने 2020 तक सालाना 100 अरब अमेरिकी डॉलर देने का अपना वादा पूरा नहीं किया। विकासशील देशों को हर साल 1300 अरब डॉलर की जरूरत है और जलवायु व सतत विकास लक्ष्यों के लिए कुल 3000 अरब अमेरिकी डॉलर की जरूरत है।’’

कांत ने साथ ही कहा कि विकासशील देश जलवायु संकट के लिए जिम्मेदार नहीं हैं। उन्होंने कहा, ‘‘वैश्विक स्तर पर कार्बन उत्सर्जन की वजह हम नहीं हैं… ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में विकसित देशों की हिस्सेदारी 80 प्रतिशत है। विकासशील देशों के लिए, पर्याप्त समर्थन के बिना अपने जलवायु लक्ष्यों को पूरा करना और कार्बन मुक्त करना बेहद मुश्किल है।’’

गौरतलब है कि देशों को 2031-2035 की अवधि के लिए राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) या जलवायु योजनाओं का अपना अगला खाका इस वर्ष प्रस्तुत करना आवश्यक है। इन जलवायु योजनाओं का सामूहिक उद्देश्य औद्योगिक क्रांति की शुरुआत के बाद से वैश्विक तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करना है, जो कि 2015 के पेरिस समझौते का प्रमुख लक्ष्य है। इसके लिए विकसित देशों ने 2035 तक मात्र 300 अरब अमेरिकी डॉलर की मदद की पेशकश की है जो कि 2025 से प्रतिवर्ष आवश्यक कम से कम 1300 अरब डॉलर का एक छोटा सा अंश मात्र है। भारत ने इस राशि को ‘‘ बेहद कम…’’, ‘‘नगण्य’’ आदि करार दिया है।

संसद में जनवरी में पेश की गई सरकार की आर्थिक समीक्षा 2024-25 में कहा गया कि ‘ग्लोबल साउथ’ में जलवायु परिवर्तन को कम करने के लिए विकसित देशों से धन की कमी विकासशील देशों को अपने जलवायु लक्ष्यों को ‘‘फिर से तैयार’’ करने के लिए मजबूर कर सकती है।

‘ग्लोबल साउथ’ शब्द का इस्तेमाल आम तौर पर आर्थिक रूप से कम विकसित देशों को संदर्भित करने के लिए किया जाता है। ज्यादातर ‘ग्लोबल साउथ’ देश औद्योगीकरण वाले विकास की दौड़ में पीछे रह रह गए हैं। इनका उपनिवेश वाले देश के पूंजीवादी और साम्यवादी सिद्धांतों के साथ विचारधारा का भी टकराव रहा है।