डॉ. संतोष कुमार तिवारी।
मूर्ति पूजा के विरुद्ध और सनातन धर्म के विरुद्ध बहुधा इस प्रकार का दोहा बताया जाता है:
पत्थर पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूं पहाड़,
घर की चाकी कोई न पूजे, जाको पीस खाए संसार।
कहा जाता है कि इसे कबीरदास ने लिखा था। कबीरदास जुलाहे थे। लेकिन उनको उस समय के प्रचलित रीति रिवाज सब पता थे। अब से कुछ वर्षों पहले तक घरों में मिट्टी के चूल्हे होते थे; पत्थर की चक्की होती थी। और ये चूल्हा-चक्की शादी विवाह जैसे अवसरों पर पूजे जाते थे। कबीरदासजी को ये सब सामान्य बातें अवश्य पता होंगी। आजकल के लोग इन्हें अवश्य भूलने लगा हैं, क्योंकि घरों में न तो मिट्टी के चूल्हे होते हैं और न ही पत्थर की चक्की। इससे ऐसा लगता है कि इस प्रकार का दोहा कबीरदास ने लिखा ही नहीं और मूर्ति पूजा विरोधियों ने लिख कर उनके नाम दर्ज कर दिया हो।
रही बात पत्थर और पहाड़ पूजने की, तो सनातन धर्म में तो कण-कण में भगवान माने जाते हैं। पर्वत तो सदैव से ही सनातन धर्म में पूजनीय रहे हैं। वे हमारी अनेक पवित्र नदियों के उद्गम स्थल हैं। वास्तव में सनातन धर्म में पेड़-पौधों, नदियों और पर्वतों को भी पूजनीय माना गया है और उनकी पूजा की जाती है।
भगवद्गीता में कहा गया है: मेरुः शिखरिणामहम्। (गीता 10/23)
भगवान् ने मेरु पर्वत को अपनी विभूति कहा है।
गोस्वामी तुलसीदास ने भी रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में कहा है:
गिरि सुमेर उत्तर दिसि दूरी।
नील सैल एक सुंदर भूरी॥
तासु कनकमय सिखर सुहाए।
चारि चारु मोरे मन भाए॥
मत्स्यपुराण में सुमेरु या मेरु पर देवगणों का निवास बताया गया है। कुछ लोगों का मत है कि पामीर पर्वत को ही पुराणों में सुमेरु या मेरु कहा गया है।
गोस्वामी तुलसीदास ने विनय पत्रिका में जहां एक ओर भगवान गणेश, शिव, राम, लक्ष्मण आदि की स्तुति की है, वहीं चित्रकूट पर्वत की भी स्तुति की है।
ईश्वर दिखाई क्यों नहीं पड़ते
एक प्रश्न यह भी किया जाता है कि यदि पत्थर की मूर्तियों में ईश्वर हैं, तो वे दिखाई क्यों नहीं पड़ते।
ईश्वर उन्हीं लोगों को दिखाई पड़ता है, जो ईश्वर से प्रेम करते हैं; जिनमें ईश्वर के प्रति आसक्ति होती है; जो ईश्वर में विश्वास करते हैं। विवेकानन्द (1863-1902) को ईश्वर के दर्शन हुए। रामकृष्ण परमहंस (1836-1886) को ईश्वर के दर्शन हुए। गीता प्रेस के संस्थापक श्री जय दयाल गोयन्दकाजी (1885-1965) और श्री हनुमान प्रसाद पोद्दरजी (1892-1971) को एक नहीं अनेक बार विष्णु भगवान के दर्शन हुए। इस्कान के संस्थापक श्री प्रभुपादजी (1896-1977) को भी अनेक बार विष्णु भगवान के दर्शन हुए। प्रभुपाद जी को कई बार अपने गुरु भक्तिसिद्धान्त सरस्वतीजी महाराज (1874-1937) के दर्शन हुए। ये दर्शन स्वप्न में भी हुए और जागते हुए भी हुए।
ऐसा इस लिए हुआ क्योंकि इन सब लोगों की ईश्वर में आस्था थी और ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण था। सामान्य लोगों को भी जिनका ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण होता है, उन्हें जीवन की प्रत्येक सफलता और असफलता में ईश्वर दिखाई पड़ते हैं। कण-कण में ईश्वर दिखाई पड़ते हैं।
कण-कण में भगवान् हैं, तो मूर्ति पूजा की क्या जरूरत
सामान्यत: व्यक्ति का मन बहुत चंचल होता है। मन को एकाग्र करने के लिए मूर्ति पूजा बहुत सहायक होती है। मूर्ति पूजा से चीजें थोड़ा आसन और भावनात्मक हो जाती हैं।
फिर भी ईश्वर उन्हीं को दिखाई देते हैं जिनका उनके प्रति पूर्ण समर्पण होता है। जैसे कि मीरांबाई का था: ‘मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई’। ऐसा ही पूर्ण समर्पण भाव था भक्त प्रहलाद में और बंगाल के चैतन्य महाप्रभु में।
गुजरात के सन्त कवि नरसी मेहता के बारे में कहा जाता है कि उनके सारे पारिवारिक दायित्व भगवान श्री कृष्ण ने स्वयं आ कर पूरे किए। नरसी मेहता का यह भजन महात्मा गांधीजी को बहुत प्रिय था और इसे लता मंगेशकर सहित दुनिया के तमाम बड़े-बड़े गायकों ने गाया है:
वैष्णव जन तो तेने कहिये जे पीड पराई जाणे रे,
पर दु:खे उपकार करे तोये मन अभिमान न आणे रे॥
सकल लोकमां सहुने वंदे निंदा न करे केनी रे,
वाच काछ मन निश्चल राखे धन धन जननी तेनी रे॥
समदृष्टि ने तृष्णा त्यागी, परस्त्री जेने मात रे,
जिह्वा थकी असत्य न बोले, परधन नव झाले हाथ रे॥
मोह माया व्यापे नहि जेने, दृढ़ वैराग्य जेना मनमां रे,
रामनाम शुं ताली रे लागी, सकल तीरथ तेना तनमां रे॥
वणलोभी ने कपटरहित छे, काम क्रोध निवार्या रे,
भणे नरसैयॊ तेनु दरसन करतां, कुल एकोतेर तार्या रे॥
कहने का मतलब यह है कि जो ईश्वर के प्रति शरणागत हैं, उन्हें ईश्वर दिखाई देते हैं। ऐसी शरणागति गोस्वामी तुलसीदास को भी थी । विनय पत्रिका में उन्होंने पूर्ण दैन्य भाव से लिखा:
जाउँ कहाँ तजि चरन तुम्हारे।
काको नाम पतित-पावन जग, केहि अति दीन पियारे ॥1॥
कौने देव बराइ बिरद – हित, हठि हठि अधम उधारे।
खग, मृग, ब्याध, पषान, बिटप जड़, जवन कवन सुर तारे॥2॥
देव, दनुज, मुनि, नाग, मनुज सब, माया बिबस बिचारे।
तिनके हाथ दास तुलसी प्रभु, कहा अपनपौ हारे ॥3॥
भावार्थ—हे नाथ! आपके चरणोंको छोड़कर और कहाँ जाऊँ? संसारमें ‘पतित-पावन‘ नाम और किसका है? (आपकी भाँति) दीन-दु:खियारे किसे बहुत प्यारे हैं?॥1॥
आज तक किस देवता ने अपने बाने को रखने के लिये हठपूर्वक चुन-चुनकर नीचों का उद्धार किया है? किस देवता ने पक्षी (जटायु), पशु (ऋक्ष-वानर आदि), व्याध (वाल्मीकि), पत्थर (अहल्या), जड वृक्ष (यमलार्जुन) और यवनोंका उद्धार किया है? ॥2॥
देवता, दैत्य, मुनि, नाग, मनुष्य आदि सभी बेचारे माया के वश हैं। जो स्वयं बँधा हुआ दूसरों के बन्धन को कैसे खोल सकता है। इसलिये हे प्रभो! यह तुलसीदास अपने को उन लोगों के हाथों में सौंप कर क्या करे?॥3॥
ऐसी शरणागति जिसकी हो, उसे भगवान् न दिखें, ऐसा हो ही नहीं सकता।
(लेखक सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं।)