प्रदीप सिंह ।
बुद्धिजीवी और असहिष्णु! यह बात विरोधाभासी लगती है। पर अपने देश में ऐसा ही है। विरोधी विचार के प्रति बुद्धिजीवियों के एक वर्ग की असहिष्णुता असीमित होती है। माथा देखकर तिलक लगाने की कहावत तो सुनी थी, आजकल पार्टी का चुनाव चिन्ह देखकर आलोचना या प्रशंसा का दौर चल रहा है। मॉब लिन्चिंग किसे कहा जाएगा और उसे कितनी गंभीरता से लिया जाएगा इसका फैसला इस बात से होगा कि करने वाला कौन है। किसी सरकार की कामयाबी या नाकामी का फैसला इस बात से तय होगा कि सरकार किसकी है।
सत्ता की संगत की आदत
राजा-महाराजाओं के जमाने में दरबार में रत्न होते थे। कहते हैं अकबर के दरबार में नौ रत्न थे। जनतंत्र आने के बावजूद वह परम्परा खत्म नहीं हुई। इसलिए उन्हें सत्ता की संगत की आदत हो गई। अब आदत इतनी जल्दी कहां छूटती है। यह नशे की तरह होती जिसे छुड़ाने की कोशिश करो तो विदड्राल सिम्पटम नजर आते हैं। अपने देश में भी ऐसा ही हो रहा है। अजीब सरकार आई है कह रही है कि बुद्धिजीवी पालेंगे ही नहीं। जो इस सांचे में रचे बसे थे उनको अपना लेने में भला क्या हर्ज था। नहीं किया तो खामियाजा तो भुगतना पड़ेगा। तो देश के बुद्धिजीवियों के इस वर्ग ने मुनादी कर दी है कि सात साल में इस सरकार ने कोई अच्छा काम किया ही नहीं। उल्टे जनतंत्र खत्म कर दिया, संवैधानिक संस्थाओं की प्रतिष्ठा नष्ट कर दी और अधिनायकवादी तो है ही। गनीमत इतनी है कि प्रधानमंत्री और पूरी सरकार को गाली देने की छूट है। देश के खिलाफ बोलना तो सामान्य बात है। अब क्या इतना भी बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।
सांप्रदायिकता, धर्मनिरपेक्षता और बुद्धिजीवियों का कुनबा
महाराष्ट्र में कोरोना का तांडव चरम पर है। पहले वाले दौर में भी राज्य ने सबसे ज्यादा संक्रमित और मौतों के आंकड़े में बाजी मारी थी। पहले दौर में प्रवासी मजदूरों को महाराष्ट्र से भगाने में सरकार ने पूरा सहयोग किया। अब एक बार फिर रेलवे स्टेशन और बस अड्डों पर वैसे ही दृश्य नजर आ रहे हैं। पालघर में साधुओं की हत्या पुलिस की मौजूदगी में हो जाय तो कोई बड़ी बात नहीं। सरकार के गृहमंत्री पर सौ करोड़ की वसूली का आरोप लग जाय तो क्या हो गया। जिस राज्य में यह सब हो रहा हो उसका मुख्यमंत्री रैंकिग में ऊपर दिखाई देता है। क्यों? क्योंकि वह साम्प्रदायिक लोगों का साथ छोड़कर नए-नए धर्मनिरपेक्ष बने हैं। और जो धर्मनिरपेक्ष बिरादरी में शामिल हो गया वह भला बुरा कैसे हो सकता है। जो साम्प्रदायिक हो वह अच्छा कैसे हो सकता है। कौन धर्मनिरपेक्ष कहलाएगा और कौन साम्प्रदायिक इसका फैसला बुद्धिजीवियों का यह कुनबा ही करेगा। इतना ही नहीं धर्मनिरपेक्षता और साम्प्रदायिकता की परिभाषा भी यही लोग तय करेंगे। उनकी इस परिभाषा का प्रमुख आधार बहुत स्पष्ट है। एक, हिंदू हित की बात करना साम्प्रदायिकता है और दूसरा, मुसलिम हित की बात करना धर्मनिरपेक्षता। तो फैसला हो गया।
इनकी चिंता के मानक
जनतंत्र की चिंता में दुबले होने वाले 2018 में बंगाल के पंचायत चुनावों की बड़े पैमाने पर रिगिंग पर चुप रहे। कूच बिहार में दस अप्रैल को एक मतदान केंद्र पर भीड़ का सीआईएफ पर हमला चिंता का सबब नहीं बना। क्योंकि हमलावर एक धर्मनिरपेक्ष पार्टी के कार्यकर्ता/समर्थक थे। बिहार का एक पुलिस अधिकारी सरकारी काम से यानी चोरों को पकड़ने पश्चिम बंगाल जाता है। वहां की सरकार को आधिकारिक सूचना देकर। स्थानीय पुलिस मदद नहीं करती और चोरों का गिरोह पुलिस अधिकारी को पीट-पीटकर मार डालता है। इस कांड को हुए पांच दिन होने गए। आपने देश में कहीं से भी इस घटना के बारे में मॉब लिन्चिंग का शब्द सुना क्या। किसी ने अवार्ड वापस किया? रिटायर्ड नौकरशाहों के विशिष्ट कुनबे ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखा? मुझे तो नहीं दिखा आपको दिखा हो तो बताइएगा। कल्पना कीजिए यही घटना उत्तर प्रदेश में हुई होती। तो इस पुलिस अधिकारी को न्याय दिलाने के लिए मीडिया के एक वर्ग की फौज घटना स्थल पर डेरा डाल चुकी होती। चौबीस घंटे लाइव कवरेज हो रहा होता। और मुख्यमंत्री के इस्तीफे से कम की तो बात ही नहीं होती। सवाल हवा में गूंज रहा होता क्या कानून की रक्षा करना गुनाह है!
अलग-अलग पैमाने
किसी की प्रशंसा या किसी की आलोचना/निंदा करने में कोई हर्ज नहीं है। यह किसी का भी अपना निजी आकलन या राय हो सकती है। ऐसी राय बनाने का सबको संविधान प्रदत्त अधिकार है। पर प्रशंसा या आलोचना/निंदा का पैमाना अलग-अलग कैसे हो सकता है। समस्या यहीं से शुरू होती है और नीयत पर शंका भी। जैसे कानून में एक अपराध की एक ही सजा होती है उसी तरह सामाजिक-राजनीतिक जीवन में सही गलत के निर्धारण का भी एक ही आधार होना चाहिए। मॉब लिंचिंग गलत है तो गलत ही रहेगी या उसे करने वाले और उसका शिकार होने वाले के हिसाब बदल जाएगी।
पूरी दुनिया गलत, सिर्फ ये सही
बात यहीं तक नहीं है। इनको लगता है कि जो काम राजनीतिक दल नहीं कर पा रहे हैं, वह काम ये कर सकते हैं। सारी दुनिया गलत है सिर्फ मैं जो कह रहा हूं वही सही है। यह अहसास बहुत दुख देता है। इस अहसास में एक उम्मीद छिपी होती है कि जिसके लिए यह सब कर रहे हैं वह कुछ इनाम-इकराम देगा। यही उम्मीद रुक कर सोचने का मौका नहीं देती कि जिस दिशा में जा रहे हैं वह सही है या गलत। हालत जुआरी जैसी हो जाती है। हर बाजी हारने के बाद फिर खेलते हैं कि इस बार सारा हिसाब बराबर कर लूंगा। तो जुआ तो द्यूत क्रीड़ा के महारथी युधिष्ठिर भी नहीं जीत पाए थे।
आसमान गिरेगा तो पांवों पर थाम लेंगे
मशहूर व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई ने इन बुद्धिवादियों के बारे में लिखा है- ‘अध्यापक थे, तब एक टिटहरी की प्राण-रक्षा की थी। टिटहरी ने आशीर्वाद दिया- भैया मेरे जैसा होना। टिटहरी का चाहे तो मतलब रहा हो, पर वे इन्टलेक्चुअल, बुद्धिवादी हो गए। हवा में उड़ते हैं, पर जब जमीन पर सोते हैं तो टांगें ऊपर करके… इस विश्वास और दम्भ के साथ कि आसमान गिरेगा तो पांवों पर थाम लूंगा।‘ अब आसमान है कि दगा दे देता है।
बदनीयती और झूठ की नींव
विमर्ष बदलने की ऐसी कोशिशें कामयाब नहीं हो सकतीं। क्योंकि बदनीयती और झूठ की नींव पर कोई मीनार नहीं खड़ी हो सकती। जो खुली आंखों से सबको दिखाई दे रहा है उसे झुठलाने की कोशिश करेंगे तो वही होगा जो हो रहा है। चिट्ठी लिखने वाले चिट्ठी लिखते रहेंगे। सत्ता की उष्मा की याद इन बुद्धिवादियों को उस रास्ते पर ले जाएगी जिस पर यात्रा तो कर सकते हैं पर मंजिल नहीं आने वाली। वैसे उनकी जीवटता की दाद तो देना ही चाहिए। हर बार चित होने पर धूल झाड़कर खड़े हो जाते हैं।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं। आलेख ‘दैनिक जागरण’ से साभार)