प्रदीप सिंह।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कुछ करें और उससे कुछ लोगों को तकलीफ न हो, यह संभव नहीं है। बीते दिनों मोदी केदारनाथ धाम में आदि शंकराचार्य की प्रतिमा का अनावरण करने और उनकी समाधि राष्ट्र को समर्पित करने गए। इससे कुछ लोगों के दिल जलने थे और जले। ऐसे लोगों की इस देश में कमी नहीं है, जो सनातन धर्म के किसी प्रतीक की चर्चा से ही उद्वेलित हो जाते हैं।
जवाहरलाल नेहरू नहीं रहे, पर उनके सोच का पोषण करने वाले आज भी हैं। तो जाहिर है कि सनातन धर्म और भारतीय संस्कृति की पुनर्स्थापना वे कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं। ऐसे ही सोच के अगुआ और नेहरू की विरुदावलि गाने वाले एवं स्वयंभू इतिहासकार रामचंद्र गुहा को यह बड़ा नागवार गुजरा। विरोध का बहाना बनाया कि मोदी के इस कार्यक्रम का सीधा प्रसारण क्यों हुआ? इससे प्रधानमंत्री पद की गरिमा गिरी है।
दुश्मनी की भाषा में सोचने के आदी
गुहा की प्रतिक्रिया पर आश्चर्य नहीं हुआ, क्योंकि उनकी नजर में तो मोदी और भाजपा को वोट देकर मतदाताओं ने जनतंत्र की गरिमा गिराई है। ऐसे में मोदी का कोई काम भला उन्हें कैसे अच्छा लग सकता है? उन्हें नेहरू में कोई खराबी नहीं नजर आती और मोदी में कोई अच्छाई नहीं दिखती। दरअसल ये ऐसे लोग हैं जो दुश्मनी की भाषा में सोचने के आदी हो गए हैं। ऐसी भाषा उनका स्वभाव बन गई है और वे स्वभाव के विपरीत कैसे आचरण कर सकते हैं?
तथ्यों से कोई सरोकार नहीं
यह कुनबा तथ्यों और तर्कों से भागता है। आदि शंकराचार्य से जुड़ी कोई भी बात कोई भी चीज देश के कोने-कोने तक पहुंचे, यह इस देश समाज और सनातन संस्कृति के हित में है। ये लोग इस तथ्य को भी स्वीकार नहीं करना चाहते कि आदि शंकराचार्य ने शताब्दियों पहले सनातन धर्म का वैभव स्थापित करने और देश को आध्यात्मिक, सांस्कृतिक एकता के सूत्र में बांधने का अभूतपूर्व काम किया। इतना बड़ा योगदान और भला किस महापुरुष का है? लोग सनातन धर्म, भारतीय संस्कृति के शुभचिंतक होते तो उन्हें खुशी होती कि प्रधानमंत्री मोदी इस कार्यक्रम के जरिये देश को एकता के सूत्र में बांधने वाले का आभार व्यक्त कर रहे हैं। यह किसी भी भारतवासी के लिए हर्ष और गर्व का विषय होना चाहिए।
नेहरू और राजेन्द्र बाबू
आजादी के बाद से जो समाज प्रयास पूर्वक गढ़ा गया, उसमें कई नई परिभाषाएं भी गढ़ी गईं। सांप्रदायिकता की परिभाषा यह बनी कि जो सनातन धर्म या भारतीय संस्कृति की बात करे, उसका सांप्रदायिक होना तो स्वाभाविक है। पंथनिरपेक्षता की परिभाषा बनाई गई कि जो मुस्लिमों और मुगलों के शासन काल को गौरवशाली मानता हो और मुस्लिमपरस्त हो, वही सच्चा पंथनिरपेक्ष है। यह यों ही नहीं था कि देश के पहले प्रधानमंत्री नेहरू ने पहले राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद को सोमनाथ मंदिर के पुनरुद्धार कार्यक्रम में जाने से रोकने की भरपूर कोशिश की। प्रसाद की नजर में सोमनाथ मंदिर भारतीय समाज की प्रतिरोधक क्षमता का प्रतीक था, जो इतने आक्रमणों को झेलकर भी बचाकर रखा गया। नेहरू के लिए वह महज एक धार्मिक आयोजन था, जिसमें पंथनिरपेक्ष देश के राष्ट्रपति का जाना उसके पद की गरिमा को गिराता है। इसलिए उन्हें नहीं जाना चाहिए। उनके रोष का अंदाजा इससे लगाइए कि सोमनाथ में राष्ट्रपति के भाषण का प्रेस नोट उन्होंने सूचना विभाग से जारी नहीं होने दिया।
मोदी विरोध की राजनीति
यह जो दुश्मनी की भाषा में सोचने की संस्कृति को पाला-पोसा गया, उसकी जड़ें इतनी गहरी जम चुकी हैं कि उसे उखाड़ना आसान काम नहीं है। मोदी इसी काम में लगे हैं। इसलिए सदैव विरोधियों के निशाने पर रहते हैं। सबसे ताजा उदाहरण देखिए। कांग्रेस नेता शशि थरूर ने भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी को उनके जन्मदिन की बधाई का संदेश ट्वीट किया। इसे लेकर लेफ्ट-लिबरल बिरादरी उन पर टूट पड़ी। देश की राजनीति को गढ़ने में अहम भूमिका निभाने वाले एक वयोवृद्ध नेता के बारे में ट्विटर पर टिप्पणियां यदि आपने पढ़ी हों तो अहसास होगा कि यह बीमारी कितनी गहरी हो चुकी है।
सहिष्णुता यानी गाली देने की छूट
लेफ्ट-लिबरल बिरादरी का यह कुनबा सोते-जागते सहिष्णुता की दुहाई देता है, पर उसकी सहिष्णुता एकांगी है। उसके लिए सहिष्णुता की परिभाषा यह है कि उन्हें गाली देने की छूट है और उनके विरोधियों को आलोचना की भी छूट नहीं होनी चाहिए। उन्हें किसी की मृत्यु पर खुशी मनाने का अधिकार हो, भारत की हार पर जश्न मनाने का भी अधिकार हो, पर उनके विरोधियों को देश की उपलब्धि पर खुश होने का कोई अधिकार नहीं है। मोदी सरकार जो भी करे उसकी जांच होनी चाहिए, पर शर्त यह है कि उस जांच रिपोर्ट उनके आरोपों की पुष्टि करने वाली हो। अन्यथा सभी एजेंसियां सरकार के हाथ की कठपुतली हैं। सीएजी सरकार के कहे पर रिपोर्ट देता है और सुप्रीम कोर्ट भी मोदी सरकार के मन मुताबिक, फैसले सुनाता है। जो जांच, जो फैसला मोदी सरकार को दोषी न ठहराए, वह सही कैसे हो सकता है? इनकी परेशानी का कारण यहीं तक सीमित नहीं है। हो यह रहा है कि इंटरनेट मीडिया के जमाने में जानकारी तेजी से और बहुत व्यापक रूप से लोगों तक पहुंच रही है। लोगों को सिर्फ राय ही नहीं तथ्यों की भी जानकारी मिल रही है। किसी और की राय के बजाय तथ्यों के आधार पर उन्हें अपनी राय कायम करने का मौका मिल रहा है। तो यह जो बदलाव की बयार देश में बह रही है, उससे बेचैनी दिन दूनी-रात चौगुनी बढ़ रही है। जानकारी छिपाकर लोगों को अपनी राय के आधार पर भ्रम में रखने का समय चला गया।
‘महान इतिहासकार’… झूठ की खेती
एक समय था कि अकादमिक जगत में किसी होनहार का करियर खत्म करना हो, तो बस एक शब्द काफी था। उसे ‘संघी’ कह दीजिए। वामपंथियों ने इसका खूब फायदा उठाया। मोदी ने बस इतना किया कि संघी ठहरा दिए जाने का जो डर था, उसे निकाल दिया। अब इसकी परवाह किए बिना अकादमिक जगत में लोग लिख रहे हैं, बोल रहे हैं और झूठ का पर्दाफाश कर रहे हैं। अब लोगों को पता चल रहा है कि देश के महान इतिहासकार समझे जाने वाले दरअसल, दशकों से झूठ की खेती कर रहे थे और उसे सच के रूप में परोस रहे थे। …तो कितनी भी लंबी हो गम की रात, रात ही तो है। सच के सूरज को निकलने से कभी कोई रोक पाया है क्या?
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तम्भकार हैं। आलेख ‘दैनिक जागरण’ से साभार)