जो किसी भी देश में अकल्पनीय, वह भारत में हो रहा

स्वामी चैतन्य कीर्ति।
ओशो भारत की आध्यात्मिक विरासत के अपूर्व पुरुष रहे हैं। उन्होंने पूरे विश्व में एकदम आधुनिक सरोकारों से धर्म और अध्यात्म को जोड़ा और अत्यंत लोकप्रिय हुए। भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में और खासकर पश्चिमी देशों में उनके करोड़ों अनुयाई हैं। उन्होंने भारत में शरीर धारण किया और यहीं पुणे के ओशो आश्रम में समाधि ली। यह दुर्भाग्य की बात है कि चंद विदेशी अपने निहित स्वार्थों के तहत ओशो आश्रम, ओशो की बौद्धिक संपदा और आध्यात्मिक विरासत पर जबरन कब्जा कर रहे हैं।

भक्तों के चोले में विदेशी शैतान

उदहारण के लिए इसे समझें कि जर्मनी अथवा ब्रिटेन के किसी शहर में हमारे ओशो और संन्यासी मित्रों का कोई आश्रम है। हम कुछ भारतीय वहां जाकर रहते हैं, उसके संचालन और रख रखाव में अपना भरपूर सहयोग देते हैं। फिर एक समय आता है कि किसी कारण से आश्रम के पास आने वाले धन की कमी हो गयी… उसके लिए कुछ अतिरिक्त उपाय करना होगा। हम कुछ भारतीय, जो वहां नागरिक नहीं बल्कि टूरिस्ट की हैसियत से रहते हैं, वहां के समृद्ध लोगों से मिल कर उस आश्रम के एक बड़े हिस्से को बेच डालने के लिए कोई सौदा कर लेते हैं और आधी कीमत एडवांस में भी ले लेते हैं।
क्या हम ऐसा वहां कर सकेंगे? क्या उस देश का कानून हमें (भारतीय नागरिकों को) ऐसा करने देगा? क्या वहां के मूल निवासी हमें ऐसा करने देंगे? वहां के मूल निवासी और उनकी सरकार हमें पकड़ कर, वहां की ज़मीन बेचने देने की बजाय, हमें उनके देश के बाहर कर देगी और फिर कभी हमें उनके देश में नहीं आने देगी। हमें अवांछित घोषित कर देगी। क्योंकि प्रत्येक देश के अपने कानून होते हैं, आपको उनका आदर करना होता है। आप टूरिस्ट होते हुए ऐसे ही किसी देश की ज़मीन को बेचने नहीं निकल पड़ते।

आश्रम की ज़मीन बेचने की डील

यह नहीं हो सकता, यह हर देश में अकल्पनीय है। लेकिन भारत में हो रहा है। पश्चिमी देशों के दो-चार लोग जो यहाँ टूरिस्ट की भांति आते जाते हैं… कभी आश्रम के भीतर रहते हैं और कभी मुंबई की होटलों में… आश्रम का खर्चा चलाने के लिए यहाँ के अमीर लोगों को आश्रम की ज़मीन बेच देने का डील कर देते हैं, डील पर हस्ताक्षर करने के लिए भारतीय ट्रस्टियों को आगे कर देते हैं। यह केवल दिखावा होता है। और जांच के लिए अगर कोई पुलिस आश्रम के द्वार पर उनके संबंध में पूछने जाएगी तो मुख्य द्वार से ही उसे उत्तर मिल जायेगा कि यहाँ इस नाम का कोई व्यक्ति नहीं रहता है।
लेकिन व्यक्ति तो निश्चित ही रहता है, केवल दिखाई नहीं पड़ता। वो होटल में बैठ कर कोई डील कर रहा होता है… और उसके लिए एक भारतीय संन्यासी मुंबई से पुणे और पुणे से मुंबई डाक्यूमेंट्स ले आता है, ले जाता है। अगर भविष्य में  कुछ गड़बड़ होने की खबर आएगी तो उसके लिए वही भारतीय ही उत्तरदायी  होगा… होटल में बैठा टूरिस्ट नहीं होगा। ऐसे ही जैसे कभी श्रीमती सोनिया गाँधी की कमांड चलती थी लेकिन सब गड़बड़ के लिए उत्तरदायी केवल प्रधानमंत्री को होना होता था, क्योंकि किसी भी सरकारी निर्णय पर हस्ताक्षर प्रधान मंत्री के होते थे।

भारत एक मिस्ट्री स्कूल

सच में, भारत एक मिस्ट्री स्कूल है। यहाँ कुछ भी हो सकता है। वह भी जो अकल्पनीय है। यहाँ केवल अकल्पनीय ही होता है।
11 अगस्त को हाई कोर्ट एक ऐतिहासिक निर्णय देती है कि ओशो आश्रम की कोई संपत्ति अलग न की जाये और सबको ओशो की समाधि पर जाने की अनुमति है, लेकिन माननीय संयुक्त चैरिटी कमिश्नर इस आदेश को भूल कर एक बार फिर से बाशो को बेचने की बोली के लिए 15  नवंबर का दिन निर्धारित कर देती है। यह भी अकल्पनीय है। हाई कोर्ट के आदेश के बाद तो आश्रम की कोई भी संपत्ति अलग नहीं की जा सकती थी। और इतना ही नहीं हाई कोर्ट ने ओशो की बौद्धिक सम्पदा को भी भारत के बाहर ले जाने की जांच के लिए कहा था।  बौद्धिक सम्पदा को वे 30 वर्ष पहले ले कर चले गए थे, फिर वे पुणे आश्रम के कमरों को पश्चिम देशों के लोगों को बेच कर करोड़ों रुपये वहां हांगकांग  के बैंक में रख लेते थे।  ये लोग आकर रहें पुणे में और मूल्य चुकाएं हांगकांग में! है न गज़ब का मिस्ट्री स्कूल?

सारा पैसा विदेश में

ओशो की समूची बौद्धिक सम्पदा पचास भाषाओँ में पश्चिम के बाज़ार में बेचो और वह धन भी हांगकांग  बैंक में रख लो और कहो कि पुणे आश्रम की ज़मीन बेचनी पड़ेगी क्योंकि अब आश्रम में आने वाले लोगों में कमी आ गयी है, पर्याप्त धन नहीं आता। भारत से ओशो का समूचा साहित्य भारत के बाहर बिकता रहा है, रॉयलटीस इत्यादि का धन सब बाहर रख लिया जाता रहा है और आश्रम को पूरी तरह से उससे वंचित कर दिया गया है। अब आपको यहाँ की अचल संपत्ति को भी कैश करना है और उसे भी चलायमान करने की पूरी योजनाएं हैं… और मुकेश सारदा की सेवाएं सदा से उपलब्ध हैं… “जी हुज़ूर, आप ले जाइये- पश्चिम में आपके छोटे से परिवार को चलाने में यह धन सहयोगी होगा”, क्योंकि आपने पश्चिम में कोई ओशो ध्यान केंद्र तो खोलना नहीं है। न पहले खोला था न अब खोलेंगे।  लेकिन फिर भी पुणे में आश्रम की इतनी बड़ी ज़मीन आपको काफी समय से बहुत अखर रही है, आप इसे बेचकर ही मानेंगे। अब देखना केवल यही है कि यहाँ के निवासी लोगों से और यहां की सरकार से आप कितना सहयोग ले पाते हैं। जो भारतीय ओशो प्रेमी आपका  विरोध करते हैं वे इतने धनवान भी नहीं हैं, लेकिन वे मुट्ठी भर लोग भी जी-जान से आपकी योजनाओं को फेल करने में लगे हुए हैं। उनके पास बहुत धन तो नहीं है, लेकिन उनकी हिम्मत निश्चित ही बढ़ती जा रही है। है तो यह सब अकल्पनीय, लेकिन सत्य को प्रकट होने में देर होती है, अंधेर नहीं।
( लेखक ‘ओशो वर्ल्ड’ पत्रिका के संपादक हैं)