प्रदीप सिंह

संसदीय राजनीति में बिरले ही ऐसे अवसर आते हैं जब सत्तारूढ़ दल संविधान संशोधन जैसा कदम उठाए और उसका समर्थन करने के अलावा उसकेराजनीतिक विरोधियों के पास कोई विकल्प ही न हो। मंगलवार को लोकसभा में ऐसा ही हुआ। आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्णों( सभी गैर आरक्षित वर्गों कहना सही होगा) को शिक्षा और नौकरी में दस फीसदी आरक्षण के लिए 124वां संविधान संशोधन विधेयक पास कराने के लिए सरकार को किसी विपक्षी दल को मनाने की जरूरत नहीं पड़ी। लोकसभा चुनाव से पहले यह मोदी सरकार का राम बाण ( अयोध्या वाला नहीं) है। मोदी का यह कदम केवल राजनीतिक रूप से ही उनकी पार्टी के लिए फायदेमंद नहीं होगा बल्कि यह समाज में और कई बदलाव लाएगा।

जिस बात की भाजपा समर्थक पिछले करीब एक साल से कमी महसूस कर रहे थे वह काम आखिरकार मोदी न कर दिया। वह था विमर्ष बदलने और तय करने का। इस एक कदम से उन्होंने राम मंदिर के मुद्दे को पीछे धकेल दिया है। विपक्ष को फौरी तौर पर निहत्था कर दिया है। लोकसभा चुनाव सामने है और एक बार फिर मोदी राष्ट्रीय विमर्ष के मुद्दे तय कर रहे हैं। ये ऐसा मुद्दा है जिसपर उनके विरोधियों को विरोध का रास्ता नहीं सूझ रहा। एक ही बात कही जा रही है कि यह चुनाव को ध्यान में रखकर उठाया गया कदम है। साल 2014 में यूपीए का खाद्य सुरक्षा कानून, उससे पहले मुसलमानों और जाटों को आरक्षण देने का कदम क्या राजनीतिक लाभ के मकसद से उठाए गए कदम नहीं थे। इनमें से किसी का चुनावी लाभ कांग्रेस को नहीं मिला। याद रखिए 1990 में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने पिछड़ा वर्ग को आरक्षण दिलाने के लिए अपनी सरकार कुर्बान कर दी थी। पिछड़ों को आरक्षण तो मिल गया पर वीपी सिंह और उनकी पार्टी कभी सत्ता में नहीं लौटी।

सवाल है कि फिर नरेन्द्र मोदी और उनकी सरकार को गैर आरक्षित हिंदू सवर्ण, मुसलमान, ईसाई और दूसरे समुदायों के लिए दस फीसदी आरक्षण की संवैधानिक व्यवस्था कराने से चुनावी लाभ क्यों मिलेगा। पहली बात तो यह कि यह कदम प्रधानमंत्री के सबका साथ सबका विकास के नारे की एक बार फिर ताईद करता है। संविधान बनाते समय जब दलितों, आदिवासियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई तो उस पर एक राजनीतिक सर्वानुमति थी। पर पिछड़ा वर्ग के आरक्षण के समय ऐसा नहीं था। उस समय सभी पार्टियां संशय में थीं कि किसको राजनीतिक फायदा होगा और किसको नुक्सान। वीपी सिंह को लगा कि वे जनता दल के लिए एक स्थाई वोट बैंक बना रहे हैं। कांग्रेस और भाजपा को लगा कि उन्हें हमेशा के लिए सत्ता से बाहर रखने का इंतजाम हो रहा है। पिछड़ा वर्ग के आरक्षण के समय सवर्णों में भारी नाराजगी थी। उन्हें लग रहा था कि उनसे कुछ छीनकर पिछड़ा वर्ग को दिया जा रहा है। पिछड़ा वर्ग को लग रहा था कि उन्हें उनका संवैधानिक हक देर से ही सही मिल रहा है। पर सवर्णों को लगा कि एक झटके में उनके लिए सत्ताईस फीसदी अवसर कम हो गए। सवर्णों के इस आरक्षण की व्यवस्था में किसी से कुछ छीना नहीं जा रहा है। इसलिए विपक्षी दल इसका विरोध नहीं कर पा रहे हैं। सिर्फ राष्ट्रीय जनता दल ने अपना यादवमुसलिम जनाधार एकजुट करने के लिए इसका विरोध किया है। लेकिन वे भूल रहे हैं कि इससे मुसलमानों की दशकों पुरानी आरक्षण की मांग पूरी होती है। उन्हें धर्म के आधार पर आरक्षण तो नहीं मिला पर अब पिछड़ा वर्ग के साथ ही अगड़ों के आरक्षण में भी उनकी हिस्सेदारी होगी। एक अंग्रेजी दैनिक के आंकलन के मुताबिक नई व्यवस्था से सभी वर्गों के करीब उन्नीस करोड़ लोगों को लाभ मिलेगा।

आरक्षण का मुद्दा देश में सामाजित वैमनस्य का कारण बनता जा रहा था। देश में दो वर्ग बन गए थे। एक जिसे आरक्षण का लाभ मिला है और दूसरा जो इससे वंचित है। आजादी के बाद या उससे पहले से ही समाज के वंचित वर्गों में सामाजिक सीढ़ी पर ऊपर जाने की होड़ थी। आरक्षित वर्ग में शामिल होना सामाजिक प्रतिष्ठा की दृष्टि से कमतर माना जाता था। पर पिछड़ा वर्ग के आरक्षण के बाद से माहौल बदल गया। समाज का हर तबका आरक्षित वर्ग में शामिल होने के लिए आतुर है। महाराष्ट्र में मराठा, गुजरात में पाटीदार और हरियाणा में जाट पिछड़ा वर्ग में शामिल होने के लिए हिंसक आंदोलन कर चुके हैं। जो जातियां पिछड़ा वर्ग में हैं अब वे दलित और आदिवासी बनना चाहती हैं। यह ऐसी होड़ है जिसका अंत कहां जाकर होगा किसी को पता नहीं। बहुत से आरक्षण विरोधियों को लगने लगा था कि यह अंधी दौड़ एक दिन आरक्षण के खात्मे की वजह बनेगी।

मोदी सरकार के इस एक कदम से आरक्षित और अनारक्षित वर्ग का सामाजिक भेद खत्म हो जाएगा। अब समाज के हर वर्ग को आरक्षण मिल जाएगा। इसके साथ ही शिक्षण संस्थाओं और सरकारी नौकरियों में चालीस फीसदी स्थान ऐसे होंगे जिन्हें मेरिट के आधार पर हासिल किया जा सकता है। आरक्षण की इस व्यवस्था के विरोध में एक तर्क यह दिया जा रहा है कि सरकारी नौकरियां हैं कहां। यह बात तथ्यात्मक रूप से तो सही है कि सरकारी नौकरियां बढ़ नहीं रही। पर मराठा, पाटीदार और जाट आरक्षण का समर्थन करते वक्त यह तर्क कहां चला गया था। इस कदम से कितने लोगों का फायदा होगा इस पर विवाद हो सकता है। पर एक बात निर्विवाद रूप से कही जा सकती है कि मोदी सरकार का यह कदम समाज में आरक्षण के कारण पैदा हुई कटुता को कम करेगा। आरक्षण के हमाम में अब सब बराबर हैं।

समाज में किसतरह की कटुता है इसका अंदाजा हाल में अनुसूचित जाति/जनजाति (अत्याचार निवारण) कानून में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को सरकार ने संसद के जरिए बदल दिया। सरकार ने नया कुछ नहीं किया। सिर्फ सुप्रीम कोर्ट के फैसले से पहले वाली व्यवस्था बहाल कर दी। उत्तर भारत के सवर्णों में इसकी वजह से इतनी नाराजगी हुई कि उन्होंने भाजपा को सबक सिखाने की ठान ली और मध्य प्रदेश और राजस्थान में भाजपा को इसका खामियाजा भुगतना पड़ा।

मोदी सरकार ने पिछले साढ़े चार साल में भाजपा के सामाजिक आधार को व्यापक बनाया है। अब समाज का वंचित वर्ग उसके साथ 2014 के मुकाबले ज्यादा मजबूती से जुड़ा है। पर पार्टी के लिए समस्या यह थी कि पिछले करीब एक साल से उसका पारम्परिक समर्थक उससे नाराज था। इन दोनों में तादातम्य बिठाने में उसे कठिनाई हो रही थी। एक सौ चौबीसवें संविधान संशोधन से उसकी यह समस्या हल हो जाएगी इसके आसार दिख रहे हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि इसमें किसी जाति, धर्म या क्षेत्र से भेदभाव नहीं किया गया है।यह विधेयक लोकसभा से तो पास हो गया है लेकिन राज्यसभा में कांग्रेस सीधे नहीं तो परोक्ष रूप (प्रवर समिति को भेजने के बहाने) से इसका विरोध कर सकती है। वहां से पास हो गया तो सरकार को सुप्रीम कोर्ट में नई चुनौती का सामना करना पड़ेगा।