आपका अखबार ब्यूरो।

इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र (आईजीएनसीए) द्वारा ‘श्री देवेंद्र स्वरूप स्मारक व्याख्यान’ का आयोजन किया गया। व्याख्यान का विषय था ‘इतिहास के संदर्भ में भारतीयता’। इस महत्वपूर्ण व्याख्यान के प्रमुख वक्ता राज्यसभा सांसद डॉ. सुधांशु त्रिवेदी थे। उन्होंने भारतीय इतिहास और उसकी सांस्कृतिक विरासत पर अपने विचार व्यक्त किए। कार्यक्रम की अध्यक्षता आईजीएनसीए के अध्यक्ष श्री रामबहादुर राय ने की। आईजीएनसीए के कलानिधि विभाग के अध्यक्ष एवं डीन (प्रशासन) प्रो. रमेश चंद्र गौड़ ने स्वागत भाषण दिया और कार्यक्रम की रूपरेखा प्रस्तुत की। इस अवसर पर अतिथियों ने श्री हितेश शंकर द्वारा सम्पादित पुस्तक ‘शोध पुरुष- श्री देवेन्द्र स्वरूप’ का विमोचन भी किया।

‘इतिहास के संदर्भ में भारतीयता’ विषय पर बात रखते हुए राज्यसभा सांसद डॉ. सुधांशु त्रिवेदी ने कहा, “हमें समझना होगा कि भारत अपने आप में दुनिया का एक अनूठा देश है। दुनिया के बाकी देश इतिहास बन गए, लेकिन भारत कभी इतिहास नहीं बना। वो इतिहास के अनादि काल से आज तक जीवंत चला आ रहा है। हम एकमात्र मौजूद सभ्यता हैं, जो प्राचीन विश्व से लेकर अब तक निरन्तर चली आ रही है।”

भारत और पश्चिम की इतिहास की अवधारणा पर बात करते हुए उन्होंने कहा, “इतिहास के बारे में भारत की और पश्चिम की व्याख्या में बुनियादी फर्क है। पश्चिम कहता है कि इतिहास ज्ञान की वह शाखा है, जो आपको अतीत में घटित किसी घटना के बारे में बताता है कि वास्तव में क्या घटित हुआ तथा कब और किस समय घटित हुआ। परन्तु हमारे यहां कहा गया है कि इतिहास वो है, जो पूर्वकाल में हुई घटना को उस रूप में प्रस्तुत करता है, जो वर्तमान समय में समाज के जीवन मूल्यों को स्थापित करने और बढ़ाने में भूमिका निभा सके। इसलिए हमारा इतिहास रामलीला है। हमारा इतिहास रामायण और महाभारत है। राम कब हुए और किस जगह पर हुए, कितने वर्ष पूर्व हुए, इसका पूरा इतिहास हमारे पास है, परंतु यह हमारे लिए उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है। राम ने क्या किया और उसे किस रूप में समाज में उतारा जा सकता है, यह अधिक महत्त्वपूर्ण है। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस में लिखा है- “कहत परम पुनीत इतिहासा। जो सुनि सकल लोक भ्रम नासा॥” यानी यह एक ऐसा परम पुनीत इतिहास है, जिसके सुनने मात्र से सब भ्रम का नाश हो जाता है। तो, समस्त भ्रम का नाश करना हमारे इतिहास का उद्देश्य है।”

उन्होंने विषय को आगे बढ़ाते हुए कहा कि जो लोग आर्केलॉजिकल साक्ष्यों को बहुत महत्त्व देते हैं, वो समझ लें कि आर्केलॉजिकल साक्ष्य छोटी अवधि में ही प्रभावी होता है, दीर्घ अवधि में नहीं। जैसे राम मंदिर के निर्णय के समय जो लोग गलत उद्धरण देने की कोशिश करते थे, वे यह कहते थे कि 12वी शताब्दी से पहले वहां पर कोई मंदिर था, इसका कोई आर्केलॉजिकल साक्ष्य नहीं है। तो, मैं उनसे कहता हूं कि 6 दिसंबर, 1992 से पहले वहां पर कोई ढांचा था, आज की तारीख में उसका कोई आर्किलॉजिकल साक्ष्य नहीं है।

उन्होंने कहा कि हमारे इतिहास के साथ कुछ बहुत बड़े षडयंत्र हुए। बहुत से षडयंत्र हैं, जिन्हें समझने की जरूरत है। षडयंत्र के तहत हमारे दिमाग में इतनी शर्मिंदगी भर दी गई कि हम उभर कर न आने पाएं। अपनी बात का समापन करते हुए उन्होंने कहा, “भारत के इतिहास के साथ जितने प्रकार के छल किए गए हैं, ये सबसे ज्यादा ‘एम फैक्टर’ के द्वारा किए गए हैं। ‘एम फैक्टर’ मतलब मैकाले विचार 19वीं शताब्दी का और मार्क्सवादी विचार 20वीं शताब्दी का।” परिहास के तौर पर उन्होंने यह भी जोड़ा कि कोई और ‘एम फैक्टर’ आप सोच रहे होंगे, तो आपकी बुद्धिमता पर मुझे पूरा भरोसा है।

अपने अध्यक्षीय भाषण में श्री रामबहादुर राय ने देवेंद्र स्वरूप की अत्यंत महत्त्वपूर्ण अप्रकाशित डायरियों के प्रमुख बिंदुओं को साझा करते हुए, भारतीय इतिहास के पारम्परिक व आधुनिक दृष्टिकोण पर गहरा प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि हमारे शास्त्रों में ही हमारा इतिहास छिपा हुआ है और पुराणों में उस इतिहास का वर्णन है। अंग्रेजी की मशहूर पुस्तक ‘सेवन ऋषि’ज’ (सप्तऋषि) का उल्लेख करते हुए उन्होंने देवेंद्र स्वरूप के सप्तऋषियों पर गहरे शोध से अवगत कराया। अंत में, उन्होंने डायरी को आईजीएनसीए द्वारा पुस्तक के रूप में प्रकाशित कराने की भी बात भी कही।

प्रो. रमेश चंद्र गौड़ ने अंत में धन्यवाद ज्ञापन करते हुए कलानिधि प्रभाग के निजी संग्रहालय और विभाग के कार्यों में बताया। साथ ही, श्री देवेंद्र स्वरूप की 36 अप्रकाशित डायरियों के प्रकाशन की योजना के बारे में बताया।

इस आयोजन में इतिहासकारों, शोधार्थियों और भारतीय संस्कृति में रुचि रखने वाले लोगों की बड़ी संख्या में उपस्थिति रही। गौरतलब है कि हर वर्ष आईजीएनसीए द्वारा अपने क्षेत्र की विशिष्ट शख्सियतों की स्मृति में इस तरह के कई व्याख्यान आयोजित किए जाते हैं, जिनका उद्देश्य भारतीय इतिहास, संस्कृति और परम्पराओं पर गहन विमर्श को प्रोत्साहित करना है।