ऊंचे से ऊंचे पदों पर बैठे ईमानदार लोगों को भी अपनी जाल में फंसाने से ये लोग नहीं चूकते

प्रदीप सिंह।
भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की किताब “जस्टिस फॉर दि जज”जो उनकी आत्मकथा है, के माध्यम से इस आलेख में एक बड़े मुद्दे पर बात करूंगा। इस देश में एक ऐसा वर्ग है, एक ऐसी टोली है जिसे   इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि वह सत्ता में हैं या नहीं है। वह अपने काम में लगा रहता है।उनका काम क्या है? सिस्टम में जहां भी, जिस स्तर पर भी ईमानदार लोग हैं किसी तरह उन पर नकेल कस कर रखो। अगर वह उनके रास्ते पर चले तो ठीक मगर अपनी ईमानदारी से समझौता करने से जरा भी पीछे नहीं हटे तो उनकी प्रतिष्ठा पर हमला करो। ईमानदार लोगों को जो चीज सबसे ज्यादा प्रिय होती है वह होती है उनकी इज्जत,उनकी प्रतिष्ठा जो उन्होंने दशकों उस क्षेत्र में काम करके कमाई होती है। उनकी प्रतिष्ठा दांव पर लगे यह कोई ईमानदार आदमी चाहता नहीं है।मगर जब उस पर हमला होता है तो अक्सर होता यह है कि ज्यादातर लोग लड़ने की बजाय चुपचाप पीछे हट जाना पसंद करते हैं।इस टोली को ऐसे ही लोगों की तलाश रहती है, ऐसे ही मौकों की तलाश रहती है।


आर्मी चीफ को रिश्वत की पेशकश

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डॉ. मनमोहन सिंह जब प्रधानमंत्री थे तो उस समय थलसेनाध्यक्ष थे जनरल वीके सिंह। सेना के सौदों में बिचौलियों को हटाने के मामले में उन्होंने बड़े कदम उठाए। उनको पता था कि इस मामले में अक्सर सबसे ज्यादा भूमिका रिटायर्ड सेना अधिकारियों की होती है। वह किसी न किसी कंपनी के बोर्ड में चले जाते हैं या उनके साथ जुड़ जाते हैं और इन रक्षा सौदों में उनकी बड़ी भूमिका होती है। जनरल वीके सिंह ने बिचौलियों को रोकने की पूरी कोशिश की।उन्हें उनके दफ्तर में आकर रिश्वत देने की पेशकश हुई और इससे इंकार कर दिया तो धमकाने की भी कोशिश की गई। उसके बाद उनके खिलाफ एक बड़े अखबार में एक खबर छपी या यूं कहें कि छपवाई गई कि वे सरकार के खिलाफ विद्रोह करने वाले थे। यानी भारत में सेना की बगावत होने वाली थी। वह खबर पूरी तरह बेबुनियाद थी। उसके बाद उनके साथ क्या हुआ और किस तरह से उनकीउम्र के मामले को उठाया गया।उनकी उम्र का मामला सुप्रीम कोर्ट में गया जहां से बड़ा विचित्र फैसला आया। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि आपकी दो जन्मतिथि है। आप दोनों के साथ रहिए। नौकरी के लिए अलग जन्मतिथि और पासपोर्ट, आधार, वोटर कार्ड जैसे दस्तावेजों के लिए अलग।क्या आपने कभी ऐसा सुना है। सुप्रीम कोर्ट को यह तय करना था कि उनकी कौन सी जन्मतिथि सही है और कौन सी गलत है।इसमें कोई बड़ी बात नहीं थी। उनके पिता भी फौज में थे और उनका जन्म आर्मी हॉस्पिटल में हुआ था। किस तारीख को हुआ, कितने बजे हुआ, किस समय हुआ सब पता था। इसके बावजूद उस पर फैसला नहीं हुआ। आखिरकार उनकी जो असली उम्र थीजिस बारे में वह दावा कर रहे थे उसके मुताबिक एकसाल और सेनाध्यक्ष रह सकते थे।

चीफ जस्टिस को घेरने की कोशिश

Ex-Chief Justice Ranjan Gogoi's Response Amid Row Over Pegasus Scandal

इसी तरह से भारत के मुख्य न्यायाधीश रहे जस्टिस रंजन गोगोई पर सुप्रीम कोर्ट की एक महिला कर्मचारी ने शारीरिक संबंध बनाने का आरोप लगाया। वह महिला अगस्त से अक्टूबर 2018 तक जस्टिस रंजन गोगोई के आवास पर स्थित उनके कार्यालय में काम कर चुकी थी।इससे पहले वह सुप्रीम कोर्ट की लाइब्रेरी में कार्यरत थी। 19 अप्रैल,2019 की बात है। जब रंजन गोगोई तिरुपति से अपनी पत्नी के साथ वापस दिल्ली लौटे तो उनको बताया गया कि उस महिला ने उनके खिलाफ आरोप लगाया है।अब आप देखिए कि किस तरह से इन लोगों का सिस्टम काम करता है। उनको जब यह बात बताई गई तो उससे पहले ही उस महिला की शिकायत की प्रति सुप्रीम कोर्ट के सारे जजों को भेजी जा चुकी थी।केवल उन्हें ही नहीं उनके अलावा तीन-चार मीडिया संस्थानों को यह भेजी जा चुकी थी जिनमें तीन वेब पोर्टल हैं, द वायर, द प्रिंट, लीफलेट और अंग्रेजी पत्रिका कारवां।यहांयह बताने की जरूरत नहीं है कि ये लोग किससे जुड़े हुए हैं, किस तरह की मुहिम चलाते हैं, किसके पक्ष में और किसके विरोध में खड़े होते हैं। सरकार, खासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ मामला हो तब भी और न हो तब भी, बनाने की पुरजोर कोशिश करने वाले लोग हैं।उनके पास शिकायत की प्रति पहुंचीतोउनकी ओर से जस्टिस रंजन गोगोई को फोन आया कि उनके पास उनके खिलाफ शिकायत की प्रति आई है।इस पर वे अपनी प्रतिक्रिया कुछ घंटों में दे दें नहीं तो वे इसे छाप देंगे। रंजन गोगोई को समझ में आ गया कि यह मामला सीधा उनकी प्रतिष्ठा पर हमला का है। यह मामला उनको चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया से काम करने का रोकने का है।उन लोगों को पता था कि उनके चीफ जस्टिस रहते हुए सुप्रीम कोर्ट में बड़े मुद्दे आने वाले हैं। राफेल का मुद्दा था, अयोध्या का मुद्दा था और कई मुद्दे थे।19 अप्रैल को ही जस्टिस गोगोई को बताया गया था कि अनुच्छेद 32 के तहत उनके खिलाफ एक याचिका दायर होने वाली है। उसमें यह मांग की गई है किमहिला द्वारा उन पर लगाए गाएआरोपों की जब तक जांच नहीं हो जाती तब तक वह चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया के रूप में काम न करें और अदालत न आएं।वह काम न करने पाएं या काम करना चाहते हैं तो उनके मुताबिक करें। यह संदेश था इसके जरिये।

मीडिया के जरिये प्रतिष्ठा पर हमला

जस्टिस गोगोई ने अपनी किताब में लिखा है,“मैंने तय किया कि ऑफेंस इज दि बेस्ट डिफेंस। हम बचाव नहीं करेंगे बल्कि इस आरोप का जवाब पूरी ताकत से दिया जाएगा।” उस दिन शुक्रवार था। शुक्रवार की रात को ही उन्होंने सॉलिसिटर जनरल ऑफ इंडिया, अटॉर्नी जनरल और सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष को फोन किया।उन सब को बुलाया और उनको पूरी स्थिति से अवगत कराया।उन्होंने उनसे कहा कि यह जो याचिका है यह चीफ जस्टिस को काम करने से रोकने के लिए है।इस पर सॉलिसिटर जनरल ने कहा कि इस बात की संभावना तलाशनी चाहिए कि क्या इस मामले पर कोई बेंच (पीठ) गठित हो सकती है या कोई आदेश जारी हो सकता है। अगले दिन शनिवार था। शनिवार को सुप्रीम कोर्ट बैठती नहीं है।चीफ जस्टिस ने सुप्रीम कोर्ट की रजिस्ट्री से कहा कि शनिवार सुबह साढ़े दस बजे एक बेंच बैठेगी जिसकी अध्यक्षता वे खुद करेंगे। उस बेंच में उनके अलावा जस्टिस एनवी रमन्ना और जस्टिस एसबी खन्ना होंगे।उस बेंच में जस्टिस गोगोई बैठे जरूर लेकिन उन्होंने कोई आदेश पास नहीं किया बल्कि उस बेंच ने ही कोई आदेश पास नहीं किया।पीठ ने सिर्फ इतना कहा कि यह बड़ा गंभीर मुद्दा है, बड़ा संवेदनशील मुद्दा है,इसे मीडिया के विवेक पर छोड़ा जाता है कि उसे क्या करना है, क्या नहीं करना है।बेंच ने अपील की कि मीडिया को संयम बरतना चाहिए और इस बारे में कुछ भी छापने से पहले सोचना चाहिए कि किसी की प्रतिष्ठा पर, खासकर सुप्रीम कोर्ट की प्रतिष्ठा पर आंच न पहुंचे।उस आदेश पर जस्टिस गोगोई ने दस्तखत नहीं किए।

इसके बाद जस्टिस गोगोई ने जस्टिस एसए बोबडे को इस मामले में उचित कार्रवाई के लिए एक पत्र लिखा जो चीफ जस्टिस के बाद सुप्रीम कोर्ट के सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश थे। उचित कार्रवाई का क्या मतलब होता है? उचित कार्रवाई का मतलब होता है कि एक विभागीय जांच कमेटी बने याबन सकती है।बने, यह जरूरी नहीं है। सुप्रीम कोर्ट में यह एक मान्य व्यवस्था है कि इंटरनल कमेटी बने। ऐसा नहीं है कि यह रंजन गोगोई के लिए ही बनाया गया। जस्टिस बोबडे ने जस्टिस रमन्ना और जस्टिस इंदिरा बनर्जी को लेकर 23 अप्रैल को एक जांच कमेटी बनाई। 24 अप्रैल को आरोप लगाने वाली महिला ने जस्टिस बोबडे को एक चिट्ठी लिखी कि जस्टिस एनवी रमन्ना के जस्टिस गोगोई से पारिवारिक संबंध हैं इसलिए उन्हें इस कमेटी में नहीं होना चाहिए। इसके बाद जस्टिस रमन्ना कमेटी से हट गए और उनकी जगह जस्टिस इंदु मल्होत्रा को शामिल किया गया। 26 अप्रैल से कमेटी ने अपनी जांच शुरू की जो तीन दिन चली। जांच के दौरान उस महिला को लगने लगा कि उसका मामला टिक नहीं पाएगा तो उसने कहा कि उसे वकील की जरूरत है। विभागीय जांच में किसी वकील को बुलाने की इजाजत नहीं होती है। यह कानूनी रूप से संभव नहीं है। कमेटी ने इसके लिए मना कर दिया कि वकील नहीं दिया जा सकता तो फिर उस महिला ने कह दिया कि वह जांच में आगे शामिल नहीं हो सकती। इसके बावजूद कमेटी जांच करती रही।

जस्टिस गोगोई ने अपनी किताब में लिखा है,“जस्टिस बोबडे ने एक दिन उन्हें फोन कर कहा कि क्या वे उन लोगों के साथ चाय पर आ सकते हैं।”जस्टिस गोगोई ने लिखा है,“वह समझ गए कि दरअसल वह पूछताछ करना चाहते थे और कटसी के नाते उन्होंने इस तरह से कहा।” लेकिन यह बात जस्टिस गोगोई को बुरी लगी। उनको लगा कि जब सब कुछ बिल्कुल स्पष्ट है तो ऐसे में उनसे पूछताछ नहीं होनी चाहिए। नहीं होता तो अच्छा होता। खासतौर पर वह जिस पद पर थे। फिर भी जस्टिस गोगोई गए, वहां बातचीत की और अपना पक्ष रखा। कमेटी ने 6 मई, 1919 को अपनी रिपोर्ट सौंपी।उसके बाद जांच कमेटी ने सारे तथ्यों पर गौर करने के बाद फैसला सुनाया। फैसले में कहा गया कि आरोप में कोई दम नहीं है, इसलिए इस मामले को खत्म किया जाता है। उस रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया गया जो अक्सर ऐसे मामलों में होता है।

बिना वजह उठाते रहते हैं सवाल

रिपोर्ट आने के बाद उस पर भी सवाल उठाए गए और कहा गया कि जिस पर आरोप लगा था वही बेंच में बैठ गए।उन्होंने अपनी विभागीय कमेटी से जांच करा ली और खुद को आरोप मुक्त कर लिया। यह फिर से जस्टिस गोगोई को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश थी। जिस पीठ में वह बैठे थे पहली बात तो यह कि उस पीठ ने कोई आदेश पारित नहीं किया था। दूसरी बात, बेंच ने जो कहा था मीडिया से संयम बरतने को उस आदेश पर भी जस्टिस गोगोई ने दस्तखत नहीं किए थे। तीसरी बात, सुप्रीम कोर्ट की यही व्यवस्था है कि किसी जज पर आरोप लगने पर अगर जांच में उसके खिलाफ आरोप सही पाए जाते हैं तो उसके खिलाफ महाभियोग का मामला शुरू किया जाता है जो संसद से होता है। इसका पहला कदम यही है। उस समय दिल्ली हाई कोर्ट के रिटायर्ड जज जस्टिस एपी शाह ने इसकी बड़ी आलोचना की किविभागीय जांच नहीं होनी चाहिए।जस्टिस एनवी रमन्नाके मुख्य न्यायाधीश बनने से पहले उनके खिलाफ आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी ने आरोप लगाए तो उसकी जांच के लिए भी सुप्रीम कोर्ट की इंटरनल कमेटी बनी। तब उन्हीं जस्टिस एपी शाह ने उसे सही ठहराया।तब उन्होंने माना कि उन्होंने उस समय गलती की थी। उन्हें इसके विरोध में नहीं बोलना चाहिए था।

लेकिन आप देखिए,वह जो समूह है वह इस बात को भूला ही नहीं है। राफेल सौदे पर जो फैसला आया, अयोध्या पर जो फैसला आया, उस ब्रिगेड ने आज तक उसे स्वीकार नहीं किया है। जैसे ही पेगासस का मामला आया तुरंत उसमें खबर यह चलाई गई कि दरअसल पेगासस का इस्तेमाल उसी समय हुआ था जब जस्टिस गोगोई पर आरोप लगे थे। उस महिला का फोन टैप किया गया था और उससे जुड़े दूसरे लोगों का फोन टैप किया गया था।इससे जांच प्रभावित की गई और उसी वजह से राफेल और अयोध्या के मामले में फैसले को भी प्रभावित किया गया। इस तरह की बातें लिखी गई। जस्टिस गोगोई आखिर में अपनी किताब में लिखते हैं,“यह जो तरीका है, जो लोग इसके खिलाफ हैं, उनके लिए सही तरीके से बोलने का समय आ गया है। अगर आप किसी चीज को गलत समझ रहे हैं तो सामने आकर बोलिए कि यह गलत हो रहा है। नहीं तो होगा यही।”

मैं पिछले काफी समय से कह रहा हूं कि इसी तरह से ईमानदार लोगों को रोकने की, फंसाने की, उनके काम में बाधा पहुंचाने की, उनकी प्रतिष्ठा खत्म करने की, उनकी ईमानदारी पर सवाल, उनकी इंटीग्रिटी पर सवाल उठाने की कोशिशें होती रहेंगी। अगर आर्मी चीफ और चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया इसका शिकार हो सकते हैं तो आप कल्पना कीजिए कि दूसरे लोग, चाहे वे जनप्रतिनिधि हों, अधिकारी हों,ज्यूडिशियरीके दूसरे पदाधिकारी हों, उनके खिलाफ किस तरह के हथकंडे अपनाए जाते रहे होंगे। यह सब तब हो रहा है जब ये लोग सत्ता में नहीं हैं।