डॉ. संतोष कुमार तिवारी।
पहले तन्त्र के बारे में चर्चा कर लेते हैं और बाद में मन्त्र के बारे में बात करेंगे।
एक थे जॉन वुडरोफ (John Woodroffe 1865-1936)। अंग्रेजों के जमाने कलकत्ता हाई कोर्ट के जज थे। John Woodroffe की पढ़ाई यूनिवर्सिटी कालेज, ऑक्सफोर्ड, इंग्लैंड में हुई थी। उनको आजीविका का साधन भारत में मिला और उनकी आध्यात्मिक प्रगति भी भारत में हुई। उनका निधन सन् 1936 में फ्रांस में हुआ।
तान्त्रिक ने John Woodroffe का दिमाग बांध दिया
एक बार John Woodroffe कोलकाता में किसी मुकदमे की सुनवाई कर रहे थे। तो उन्हें मुकदमे की बातों का सिर-पैर समझ में नहीं आ रहा था। ये परेशान हुए कि आज मुझे क्या हो गया है? उन्होंने अपनी परेशानी अपने असिस्टेंट को बताई। तो असिस्टेंट ने कहा कि अदालत के बाहर साधू-भेष में एक तान्त्रिक बैठा है; उसने किसी के कहने पर आपके मस्तिष्क को बांध दिया है और इस कारण आपका दिमाग काम नहीं कर रहा है। John Woodroffe ने फौरन एक पुलिस वाले को आदेश दिया कि उस तान्त्रिक को वहाँ से भगा दो। तो पुलिस ने अदालत के बाहर बैठे उस तान्त्रिक को भगा दिया। उसके हटते ही John Woodroffe का दिमाग काम करने लगा और मुकदमे की सब बातें उनको समझ में आने लगीं।
Woodroffe के जीवन पर एक पुस्तक
सन् 2013 में John Woodroffe के जीवन पर Kathleen Taylor द्वारा लिखी गई एक अंग्रेजी पुस्तक प्रकाशित हुई। उसमें इस घटना का जिक्र है। उस पुस्तक का शीर्षक है – Sir John Woodroffe, Tantra and Bengal: ‘An Indian Soul in a European Body?’ 340 पृष्ठों की इस पुस्तक का प्रकाशन Routledge ने किया है।
तान्त्रिक वाली घटना ने बदल दिया जीवन
तान्त्रिक वाली उस छोटी सी घटना ने John Woodroffe का जीवन बदल दिया। It was a turning point of his life.
तन्त्र विद्या को समझने के लिए John Woodroffe ने संस्कृत सीखी। उसका सही उच्चारण करना सीखा। और वह तन्त्र व योग विद्या के शोध पर जुट गए। उनका एक दोस्त थे ए.बी. घोष। घोष साहब ने उनको राय दी कि Iआप पलंग पर सोना छोड़ दें और जमीन पर सोया करें। उनकी राय मान कर वह एक चटाई बिछा कर जमीन पर सोने लगे।
तन्त्र पर कई पुस्तकें लिखीं
John Woodroffe ने अपने नाम से और अपने छद्म नाम Arthur Avalon के नाम से अनेक पुस्तकें लिखीं। The Serpent Power नामक अपनी पुस्तक में उन्होंने कुण्डलिनी योग के बारे बताया है। उन्होंने संस्कृत ग्रन्थ ‘महानिर्वाणतन्त्रम्’ का अंग्रेजी में अनुवाद किया। अंग्रेजी अनुवाद का शीर्षक था Tantra of the Great Liberation।
उनकी अन्य प्रसिद्धि पुस्तकें हैं:
Introduction to the Tantra Śāstra
Hymns to the Goddess
Shakti and Shâkta
Hymn to Kali: Karpuradi-Stotra.
The World as Power
The Garland of Letters (Varnamala): Studies in the Mantra-Shastra
Principles of Tantra (2 volumes)
अमेरिका में Woodroffe पर शोध
अमेरिका की कोलोराडो यूनिवर्सिटी (Colorado University) में भी John Woodroffe के ऊपर एक थीसिस लिखी गई – Sir John Woodroffe’s representations of Hindu Tantra। इस थीसिस के अंश इस URL पर उपलब्ध हैं:
John Woodroffe का कहना था कि This manifest universe is nothing other than the active Shakti अर्थात यह प्रत्यक्ष ब्रह्मांड कुछ और नहीं है, बल्कि एक सक्रिय शक्ति है।
उनका कहना था कि इस शक्ति को मात्र सिद्धांतों का अध्ययन करके नहीं समझा जा सकता है। इसको समझने के लिए कठोर संयम और साधना की अवश्यकता होती है। तभी सिद्धि प्राप्त हो सकती है। यह सिद्धि सांसारिक भी हो सकती है या अध्यात्मिक प्रगति भी हो सकती है।
John Woodroffe का यह भी कहना था कि तन्त्र-विद्या सनातन धर्म, जैन और बौद्ध धर्मों में अलग-अलग है, फिर भी उनमें कुछ समानताएं हैं।
John Woodroffe का कहना था कि “Just as the body requires exercise, training and gymnastics so does the mind…The means employed are called Sadhana which comes from the root ‘Sadh,’ to exert.” From this exertion, and only by means of it comes the desired goal of tantric systems.
अर्थात जिस प्रकार से शरीर को व्यायाम और अभ्यास की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार से मस्तिष्क को भी एक प्रकार की ट्रेनिंग की जरूरत होती है। इस ट्रेनिंग को ही साधना कहते हैं और इसी साधना से तन्त्र-पद्धति के वांछित उद्देश्यों को पूरा किया जा सकता है।
The Garland of Letters (Varnamala)
John Woodroffe की अंग्रेजी पुस्तक ‘The Garland of Letters (Varnamala): Studies in the Mantra-Shastra’ मन्त्र-शास्त्र पर है। इसके कुछ अध्यायों के शीर्षक से ही पाठकगण यह समझ जाएंगे कि उनमें किस विषय की चर्चा की गई है। जैसे:
Chapter XI: The Garland of Letters or Varnamala
Chapter XII: Om
Chapter XIII: The Necklace of Kali
Chapter XIV: Dhvani
Chapter XV: Mantra-Sadhana
Chapter XVI: Bij-Mantra
Chapter XVII: Gayatri-Mantra
पुस्तक के ग्यारहवें अध्याय- गायत्री मन्त्र- में उन्होंने लिखा:
“Here the Vedantic practice (Sadhana) is as profound as its theory.” (Page 283)
इसका भावार्थ यह हुआ कि वेदान्त-अभ्यास (साधना) में उतना ही गहराई है जितनी वेदान्त-सिधान्त में है। अर्थात वेदान्त में आचरण और सिधान्त में फर्क नहीं है।
उनके अनुसार:
A man may be deemed philosopher in the West, and yet lack in character and morals. This is not so in Vedanta which says that its doctrine cannot be perfectly understood, much less realized, unless the body and mind are pure enough to approach the Purity which that doctrine teaches. … Sadhana varies according to stages of development and therefore competency (Adhikara) of man. But the highest Sadhana is Karuna or compassion. (Page 284)
इसका भावार्थ यह हुआ कि पश्चिमी दुनिया में एक दार्शनिक समझा जाने वाला व्यक्ति बुरे आचरण वाला और अनैतिक हो सकता है, परन्तु वेदान्त-साधना में ऐसा नहीं है। वेदान्त-साधना में शरीर और मस्तिष्क दोनों की ही शुद्धता आवश्यक है। … इस साधना में विकास की कई सीढ़ियाँ हैं। जो साधना के सर्वोच्च शिखर पर होता है उसका हृदय करुणा से भरा होता है।
जो पाठकगण ‘The Garland of Letters (Varnamala)’ को फ्री में पढ़ना चाहें, वे इस URL पर क्लिक करें:
ब्रिटिश सरकार ने Sir की उपाधि से नवाजा
John Woodroffe ने पहली बार पश्चिमी जगत् को भारत की प्राच्य-विद्या से अवगत कराया। ज्ञान के क्षेत्र में उनके उल्लखनीय योगदान को देखते हुए ब्रिटिश सरकार ने John Woodroffe को Sir की उपाधि से नवाजा था। इस कारण वह Sir John Woodroffe कहलाए।
मन्त्र-सिद्धि
गीता प्रेस, गोरखपुर की मासिक पत्रिका ‘कल्याण’ के दिसम्बर 2021 (वर्ष 95 संख्या 12) के पृष्ठ संख्या 11-13 पर इस पत्रिका के आदि सम्पादक श्री हनुमान प्रसादजी पोद्दार (1892-1971) का एक लेख छपा। इस लेख का शीर्षक है: मन्त्र-सिद्धि। यह लेख श्री पोद्दारजी के जीवन काल में ‘कल्याण में पहले भी छप चुका था। दिसम्बर 2021 के अंक में इसका पुनर्प्रकाशन किया गया।
अपने लेख में श्री हनुमान प्रसादजी पोद्दार ने लिखा:
मुझे श्रीजुगल किशोरजी बिरला के द्वारा (एक) मास्टर श्री श्रीरामजी का लिखा निम्नलिखित वक्तव्य प्रकाशनार्थ मिला है। इस वक्तव्य को लिखने वाले सज्जन इन सब बातों में (अर्थात मन्त्र-सिद्धि में) विश्वास करने वाले नहीं थे, पर अब उनका मत बदला मालूम होता है। मैं स्वयं कुछ दिनों पहले दिल्ली गया था, तब श्रीजुगल किशोरजी ने मुझे वह मिस्री की ईंट दिखलाई थी और सारा हाल सुनाया था। जिन विशिष्ट सज्जनों के सामने यह घटना हुई, उनके लिखित प्रमाणपत्र भी उन्होंने मुझे पढ़ाए थे। कुछ समय पहले काशी के स्वामीजी श्रीविशुद्धानन्दजी के भी ऐसे ही कुछ प्रयोग मैंने देखे थे, जिनको वे सूर्य विज्ञान के द्वारा सम्पन्न बतलाते थे। इन सब चीजों को प्रत्यक्ष देखकर मन्त्र-जप और तप:सिद्धि पर विश्वास करना ही पड़ता है। आधुनिक विज्ञान हमारे पूर्वज ऋषि-मुनियों की मन्त्र-शक्ति के सामने अभी सर्वथा नगण्य (अनिभिज्ञ और अपरिचित) है – यह प्राचीन विमान-निर्माण, अस्त्र-शक्ति, मन्त्रशक्ति आदि के वर्णन से सिद्ध है।
ठगों की कमी नहीं, पर ‘सत्य’ कभी मरता नहीं
श्री हनुमान प्रसादजी पोद्दार लिखते हैं:
आजकल धूर्तता बढ़ गयी है और अधिकांश लोग चमत्कार दिखाकर, सोना आदि बना देनेका विश्वास दिलाकर लोगोंको ठगते एवं धोखा देते हैं, उनसे अवश्य सावधान रहना चाहिये। धोखेबाजों की नीच करतूतें लोगों में अवश्य अविश्वास पैदा करती हैं; परन्तु उससे ‘सत्य’ का नाश नहीं होता। वस्तुतः उनका वह धोखा भी – सिद्धियों की सत्यता के आधार पर ही चलता है । मन्त्र सिद्धि से देवता प्रत्यक्ष आज भी हो सकता है और सिद्धियां भी प्राप्त हो सकती हैं। यदि निम्नलिखित घटनाओं में कोई धोखा नहीं साबित होता; तो मन्त्र-सिद्धि के ये प्रत्यक्ष प्रमाण हैं।
मन्त्र-सिद्धि का अद्भुत चमत्कार
अपने लेख में श्री हनुमान प्रसादजी पोद्दार ने बिरला हाउस, नयी दिल्ली से मास्टर श्रीरामजी का वक्तव्य उद्धृत किया। मास्टर श्रीरामजी ने लिखा:
दिल्ली में अनुमानतः दो-ढाई मास से एक वैष्णव साधु आये हुए थे, जिनका नाम बाबा गोपालदास है। वे यहाँ पर आर्य निवास नं० 1, डाक्टर लेन पर ठहरे थे। छत के ऊपर एक गोल-सा छोटा कमरा है, उसी में वे रहते थे। उन्होंने गोपाल (श्री कृष्णजी) का एक चित्र काष्ठ (लकड़ी) की चौकी पर रख छोड़ा था। उस चित्र के चारों तरफ कनेर के पुष्प चढ़ाये हुए रखे रहते थे। गोपालदास बाबा उस चौकी के पास ही एक दरी पर बैठे तुलसी की माला फेरते थे। जो लोग उनके पास जाते, वे भी उसी दरी पर बैठ जाते थे। उनके पास जाने वालों को प्रसाद देने के लिये बाबाजी ईंट के छोटे-छोटे टुकड़े अनुमानतः 4-5 तोले वजन के एक हरे केले के पत्ते में गोपाल की मूर्ति के सामने आधा मिनट रखकर उठा लेते थे, तो ईंट के टुकड़े सफेद मिस्री के टुकड़ों में बदल जाते थे और वे इन मिस्री के – टुकड़ों को उन लोगों को दे देते थे, जो उनके दर्शनके लिये जाते। कभी-कभी ईंट का टुकड़ा कलाकंद में बदल जाता था। यह अद्भुत परिवर्तन कैसे हो जाता है? सो तो वह बाबाजी ही जानते हैं, और किसीको पता चला नहीं है, – विज्ञानवेत्ता इस कारणको ढूँढ़ निकालें तो दूसरी बात है।
उक्त बाबाजीके पास जर्मन-राजदूत, जापानी-राजदूत, लोकसभा के अध्यक्ष श्रीमावलंकर, श्रीसत्यनारायण सिंह, रायबहादुर लक्ष्मीकान्त मिश्र आदि गये थे। इनको भी इसी प्रकार का प्रसाद दिया गया था। जर्मन राजदूत के साथ एक जर्मन महाशय भी थे। उन्होंने तो यह चमत्कार देखकर बाबाजी से अपना शिष्य बना लेने की प्रार्थना भी की। इन दो प्रकार के चमत्कारों के अतिरिक्त तीन चमत्कार विशेष उल्लेखनीय हैं।
पहला चमत्कार
पहला चमत्कार तो यह है कि श्रीजुगलकिशोरजी बिरला ने एक ताँबे की चमची को एक केले के हरे पत्ते में लपेट कर अपने हाथ में लिया और बाबाजी के कहने के अनुसार श्री बिरलाजी सूर्य के सामने खड़े हो गये। बाबाजी भी पास में खड़े कुछ मन्त्र जपते रहे। दो-तीन मिनट बाद ही चमची निकाली गयी तो सोने की बन गयी थी। अभी तक वह चमची श्रीबिरलाजी के मुनीम डालूरामजी के पास उसी आर्य भवन में रखी हुई है।
दूसरा चमत्कार
दूसरा चमत्कार यह हुआ कि इस मिस्री के प्रसाद का वृत्तान्त सुनकर एक महाशय ने बाबाजी के पास जानेवालों में से किसी को यह बात कह दी कि हम तो बाबाजी की मन्त्र सिद्धि तब मानें जब कि वे पूरी-की-पूरी एक नम्बरी ईंट को मिस्री की ईंट बना दें। ऐसी बात बाबाजी को सुनायी गयी, तो बाबाजी ने झट कह दिया कि गोपालजी की कृपा से मिट्टी की ईंट के टुकड़े मिस्त्री के टुकड़े बन जाते हैं तो पूरी मिट्टी की ईंट का मिस्री की ईंट बन जाना कौन बड़ी बात है। अतएव 18 सितम्बर बृहस्पतिवार को रात्रि के 8 बजे श्रीबिरलाजी के तथा कई सज्जनों के सामने एक नम्बरी ईंट मँगायी गयी और उसको धो-पोंछ कर एक सज्जन के हाथ से काष्ठ (लकड़ी) की एक चौकी पर वह ईंट रखवा दी गयी तथा एक केले के पत्ते से उस ईंट को ढक दिया गया। तीन-चार मिनट तक बाबाजी कुछ मन्त्र जपते रहे। फिर उस ईंट को उठाया गया तो केले के पत्ते में से एकदम श्वेत मिस्त्री की ईंट निकली। वह ईंट (बिरला-हाउस, दिल्लीमें) श्रीजुगलकिशोरजी बिरला के पास रखी हुई है, सो ये दोनों चीजें तो मौजूद हैं, कोई भी देख सकता है।
तीसरा चमत्कार
श्री हनुमान प्रसादजी पोद्दार ने आगे लिखा:
तीसरी अद्भुत घटना तो मैंने स्वयं अपनी आँखों से देखी है। उस समय बाबू जुगलकिशोरजी बिरला, गायनाचार्य पं० रमेशजी ठाकुर तथा ‘नवनीत’ के संचालक श्री श्रीगोपालजी नेवटिया उपस्थित थे। अनुमानत: दिन के दस बजे होंगे। उस समय किसी ने बाबाजी से कहा कि ‘एक दिन आपने पानी से दूध बनाया था, परन्तु उस दिन प्रभुदयालजी हिम्मत सिंह का, माधवप्रसादजी बिरला आदि जो सज्जन देखते थे, उन्हें सन्तोष नहीं हुआ। सो बाबाजी, इस प्रकार से दूध बनाएँ कि किसी को भी सन्देह न रहे। हुई है कि आप पातंजल-योगदर्शनके उपयुक्त मन्त्रमें वर्णित प्रकारसे दूध बनायें कि किसी को भी सन्देह न रहे। इस पर बाबाजी बहुत हँसे और बोले, उन लोगों की श्रद्धा की स्यात् (शायद) परीक्षा की गई होगी। इसके बाद बाबाजी ने कहा ‘अच्छा, एक काठ का पट्टा बाहर रखो और उस पर पानी की बाल्टी रख दो।’ बाबाजी ने जैसा कहा वैसा ही किया गया। बाबाजी ने अपनी चद्दर, जो ओढ़ रखी थी, वह भी उतार दी और एक कौपीन तथा उस पर एक तौलिया ही रखा और स्वयं दूर खड़े हो गये तथा सबको कह दिया कि उस बाल्टी को एक दफे फिर अपनी आँखों से देख लो। सबने वैसा ही किया। बाबाजी ने एक आदमी से कहा कि ‘तुम इस पट्टे पर बाल्टी के पास बैठ कर ओम् का जप करते रहो। फिर बाबाजी उस बाल्टीके पास गये और उसमें से (एक) कटोरी पानी की भरी और सबको वह पानी दिया गया। सब ने कहा, यह तो पानी ही है। फिर बाबाजी श्रीगोपालजी की मूर्ति के पास जा बैठे और वह बाल्टी अपने पास मँगा ली। बाल्टी गमछे से ढक दी गयी और एक लाल फूल, जो गोपालजी की मूर्ति पर चढ़ा हुआ था, अपने हाथ से बाल्टी में डाल दिया। उसके पश्चात् जब गमछा हटाया गया, तब एकदम सफेद दूध देखने में आया। सबको एक-एक कटोरी दूध दिया गया। शेष दूध बिरला-हाउस पहुँचाया गया, जो अनुमानतः ढाई सेर था। वह दूध गरम करके जमाया गया और दूसरे दिन उसमें से मक्खन निकाला गया।
वैज्ञानिकों से विनयपूर्वक निवेदन
श्री हनुमान प्रसादजी पोद्दार ने अपने लेख के अन्त में लिखा:
बाबाजी की ऐसी ही अनेक सिद्धियों का हाल गोस्वामी गणेशदत्तजी सुनाया करते हैं; परंतु यहाँ पर तो संक्षेप में इतना ही उल्लेख किया गया है। इन कुछ आश्चर्यजनक बातों को देखकर मन में आया कि विज्ञानवेत्ताओं से विनयपूर्वक निवेदन करूँ कि आर्य-ऋषियों और मुनियों द्वारा सम्मानित पातंजल-योगदर्शन के सूत्र ‘जन्मौषधिमन्त्रतपः समाधिजाः सिद्धयः’ में एक मन्त्रसिद्धि भी मानी गयी है। मन्त्रसिद्धि का चमत्कार देखने का अब तक मुझे कोई अवसर नहीं मिला था, परंतु ये कुछ चमत्कार अपनी आँखों से देखकर मुझे मन्त्र सिद्धि में पूर्णतया विश्वास हो गया है। साथ ही एक प्रकार का विस्मय भी उत्पन्न हो गया है। उसी विस्मय के कारण आधुनिक विज्ञानवेत्ताओं से यह निवेदन करने की प्रबल इच्छा उत्पन्न हुई है कि आप पातंजल-योगदर्शन के उपर्युक्त मन्त्र में वर्णित मन्त्रसिद्धि को मानते हैं या नहीं। और यदि नहीं मानते हैं, तो आप भी ऐसे चमत्कार विज्ञान द्वारा करके दिखाएँ और यदि आप दिखाने में समर्थ नहीं हैं, तो आप अपने अभिमान को त्याग कर भारतीय आर्यशास्त्रों में बतायी हुई मन्त्रसिद्धि को सहर्ष स्वीकार कर लें; क्योंकि आप तो अपने को बराबर ही सत्य का पुजारी घोषित करते रहे हैं।
आशा है, बुद्धिमान विज्ञानवेत्ता इन रहस्यों की जांच-पड़ताल करके एक निर्णय पर पहुंचेगे। केवल यह कह देने से कि ‘यह सब निराधार है’ काम नहीं चलेगा। किसी वस्तु की पूरी जांच-पड़ताल किए बिना ही निराधार कह देना तो बहुत आसान बात है। जो अपने को सत्य का पुजारी कहता हो, उसका कर्तव्य है कि या तो इन घटनाओं की जड़ में कोई धूर्तता या वंचना हो तो उसको साबित कर दे, या यह स्वीकार कर ले कि हमको विज्ञान के द्वारा इनका कोई रहस्य तो मालूम नहीं हो सकता, इसलिए योगदर्शन के उस सूत्र में वर्णित मन्त्रसिद्धि को ही मानना न्यायसंगत होगा।
‘कल्याण’ दिसम्बर 2021 का उपर्युक्त अंक www.gitapress.org पर फ्री में पढ़ा जा सकता है। इसी अंक में श्री हनुमान प्रसादजी पोद्दार का लेख ‘मन्त्र-सिद्धि’ प्रकाशित हुआ है।
(लेखक झारखंड केन्द्रीय विश्वविद्यालय के सेवा निवृत्त प्रोफेसर हैं)