सोच व सरोकार की यह प्रासंगिक चेतना मानीखेज।
सत्यदेव त्रिपाठी।
पहली नियुक्ति रींवा में हुई, लेकिन एक साल में ही कृषि महाविद्यालय खुल जाने से दंतिया के लिए तबादला हो गया – बुंदेलखंड की धरती पर। यहाँ अपने अंतस् की बात लिखते हैं पिताजी –पूरे परिवार की मानसिक ज़िम्मेदारी ने मेरे स्वभाव में एक शुष्कता व नीरसपन ला दिया था, जिसे यह नौकरी अवश्य कम करने लगी थी’। रामसियाजी ने अपने पूरे जीवन-काल में कुल सोलह स्थानों पर काम किये, जिसे उन्होंने ‘पड़ाव’ कहा है। इनमे शामिल हैं- बुंदेलखंड क्षेत्र के चार पड़ाव, बघेलखंड क्षेत्र के आठ पड़ाव और छत्तीसगढ़ (अब अलग प्रांत) के चार पड़ाव। सबके ज़िक्र उन्होंने तबादले होने, पदभारों को सम्हालने से लेकर वहाँ के सहकर्मियों-खासकर वरिष्ठों व प्राचार्यों व मित्रों की सदाशयताओं-योग्यताओं…आदि ख़ासियतों के साथ अपने यादगार सम्बंधों के पर्याप्त (प्रायः सबके सब) वर्णन किये हैं, जिनमे भारतीय संस्कृति का वह पारम्परिक मानवीय रूप भी बखूबी नुमायाँ हुआ है, जो आज तो ब्रजभाषा के श्रेष्ठ कवि रत्नाकरजी के शब्दों में ‘ऊधौ, कहिबे को बस बातें रह जायेंगी’हो गया है…। लेकिन कालांतर में जब यही तबादले अधिकारियों से छीनकर मंत्रियों ने अपने हाथ में ले लिये, तो पिताश्री वयंग्य करने से भी चूके नहीं – ‘अधिकारी किसी का तबादला नहीं कर सकता। यह भी मंत्रियों का एक काम है’।
इनमें नैतिक मानदंडों के उन्नायक जीपी श्रीवास्तव और रोशनलाल सक्सेना का ज़िक्र आज के युग के नैतिक क्षय के समक्ष विशेष उदाहरणीय है। जीपीजी प्रश्नपत्र बनाने वाली समिति के सदस्य थे। अपने बच्चों को अच्छे अंकों से पास कराने की ईहा तब हर अच्छे अध्यापक में थी –आज की तरह किसी लाभ-लोभ से नहीं, सिर्फ़ शैक्षणिक व मानवीय दृष्टि से। हमारे अंग्रेज़ी के अध्यापक हाई स्कूल की परीक्षा में कक्षा में आये और शैक्षिक चेतावनी देते हुए बोल गये – ‘इधर-उधर मत देखो। काम करो काम-वर्क इज वरशिप, वर्क इज लाइफ़’। और हमने देखा कि अपठित गद्य (अनसीन पैसेज) का यही सारांश था। तो इसी सदाशयता से पिताजी ने तरह-तरह से कुछ इम्पार्टेंट सवाल बताने या एक दिन उनसे कक्षा में अपनी मर्ज़ी से कुछ पढ़ाने…जैसे आग्रह किये, जिसकी मंशा वही थी कि बोलेंगे, तो खोलेंगे। लेकिन उन्होंने कहा – पाठ्यक्रम का सब कुछ इम्पार्टेंट है और एक शब्द भी न बोले। इससे पिताजी मुतासिर व प्रसन्न न हुए होते, तो यह प्रसंग क्यों लिखते!! तब ऐसी नैतिक चेतना थी। और आज लाखों रुपयों के बदले प्रश्नपत्र उजागर करने के धंधे (रैकेट) चलते हैं। तभी आज पिताजी का यह उल्लेख बहुत मानीखेज है। इसी प्रकार रोशन लाल सक्सेना रहे, जो सरस्वती मंदिर के लिए काम करते थे, जिसे कुछ ख़ास विचारधारा के लोग साम्प्रदायिक संगठन मानते थे। सेठजी को किसी कार्यक्रम के लिए पिताजी ने स्कूल में जगह दे दी। गरमा-गरम चर्चा छिड़ गयी। पिताजी धर्म-संकट में – क्या करें? एक दिन रोशनजी ने खुद आके कहा – ‘मैंने दूसरी जगह का इंतज़ाम कर लिया है – आप चिंता न करें’। यह मामला भी आज के लिए अजूबा ही है – पिताजी का द्वंद्व भी और रोशनजी की रोशनख़याली भी – साहिर ने लिखा है –‘अच्छे को बुरा साबित करना दुनिया की पुरानी आदत है’।
इसी क्रम में सूर्यबली सिंह भी आते हैं, जो बीएचयू में प्राध्यापक पद के प्रस्ताव को ठुकरा कर छोटे बच्चों को पढ़ाने में अपना योग देते रहे। अम्बिका प्रसाद ‘दिव्य’ की कला-साधना साहित्य-सृजन के ज़िक्र आते हैं। अपने एक छात्र ओंकार बनर्जी की असीमित उपलब्धियों पर भी अध्याय है। और छोटे-मोटे ऐसे तमाम लोग व उनके सत्कर्म इस आत्मकथा अनुकरणीय आदर्श में बिखरे पड़े हैं।
यहाँ ऊपर कही 91 साला उम्र की प्रबल स्मरण-चेतना की बात फिर दुहराऊँगा कि सिर्फ़ एक बार पृष्ठ 104 पर एक नाम के न याद आने के ज़िक्र के अलावा एक से एक सुघर-दूभर नाम व छोटी-छोटी ढेरों-ढेर घटनाएँ जस की तस लिख दी गयी हैं। और यहीं यह भी कहना होगा कि इस दौरान सरकारी नियमों व प्रशासनिक संहिताओं, अधिकारियों के समक्ष व बड़े-छोटे पदों के बीच की रस्साकसियों… आदि की भी इतनी सारी बातें एकाधिक स्थलों पर आ-आकर इतनी तकनीकी भी हो गयी हैं कि किंचित ऊब का सबब भी बनी हैं। लेकिन यह भी सिद्ध करती हैं कि रामसियाजी अपने काम में कितने गहरे डूबे थे, उनमें पिज के किस क़दर एकमेक हो गये थे। यह संलग्नता व समर्पण भी त्रिकाल में विरल है। जो लोग सरकारी महकमों-खासकर शिक्षा क्षेत्र- से जुड़े हैं और व्यवस्था-सम्बन्धी प्रक्रियाओं में जिनकी दिलचस्पी है, उन्हें इस जीवन-यात्रा को पाठ्यक्रम की पुस्तक की तरह ध्यान से पढ़ना चाहिए…। और कहने की बात नहीं कि बुराई व बुरे लोगों का ज़िक्र करना पिताजी के स्वभाव में न था। सो, यह जीवनयात्रा बदी की नहीं, नेकी की कथा है – बदनेकी बताने तक की बदनीयती से बचकर बनी हुई है। कुल मिलाकर गहन संसक्ति से जिये गये जीवन की कथा पूरी तटस्थता से लिखी गयी है…।
पिताजी ने भूमिका में लिखा है- ‘यह इतिहास की पुस्तक नहीं है, लेकिन लिखते हुए कुछ ऐतिहासिक तथ्यों की पुख़्ता जानकारी लेने के लिए कुछ संदर्भ पुस्तकों का सहयोग लेना पड़ा’। इसी का परिणाम है कि अपनी जीवन-यात्रा के साथ तमाम स्थलों के बनने-बढ़ने-बिगड़ने की गाथा भी चलती रहती है –‘त्योंथर का इतिहास’ जैसे अध्याय तो इसके प्रमाण हैं ही – वर्णनों में और भी बहुत-से हैं । इसी के साथ गोविंद नारायण सिंह के मुख्यमंत्रित्व काल में हुए व्यापक शैक्षिक परिवर्तनों की बात बताने के पहले 1967 में मध्यप्रदेश में हुए बड़े राजनीतिक परिवर्तन की भी पूरी चर्चा मुख़्तसर में कर देते हैं कि कैसे द्वारका प्रसाद मिश्र की सरकार गिरी और कैसे संविद सरकार में गोविंद नारायण सिंह मुख्यमंत्री बने…। इसी के तहत रजवाड़ों के कारनामे, उनके उत्थान-पतन के सहज सकारण उल्लेखों को पढ़ते हुए वह काल जीवंत हो उठता है…। हालाँकि रामसियाजी की सकारात्मक प्रकृति के नाते उनकी उदारताओं-सत्कर्मों के वर्णन ही ज़्यादा हैं। रियासतें कैसे बनीं, अंचलों के लिए उन्होंने क्या कुछ किये, कैसे उनके विलय हुए, आज़ादी की लड़ाई में उनके क्या योगदान रहे…, फिर आज़ाद भारत में कैसे वे लोग सत्ता में आये…आदि सब कुछ इस आत्मकथा में शामिल होकर यह विश्वास दिलाते हैं कि शिक्षक के रूप में इतने प्रतिबद्ध सियारामजी अपने समय व समाज को लेकर भी कितने सजग-जागरूक थे कि जईफ़ी तक सब कुछ स्मृति में ज्वलंत रहा। सब कुछ के साथ राजनीति की मुख्य धारा से ऐसी संज्ञानता एक जागरूकनागरिक एवं समाजचेता शिक्षक के सर्वांगीण व्यक्तित्व का मानक प्रस्तुत करती है…।
त्रिपाठीजी के ऐसे अन्वीक्षण हर क्षेत्र में हैं। बचपन में साइंस विषय के पहले भर जाने से पढ़ने के लिए सुलभ न हो पाने और संस्कृत के ख़ाली रहने की स्थिति को लेकर उनका चिंतन भी बड़ा मार्मिक है। इसमें वे ठीक ही देखते हैं कि देव भाषा को विदेशी शासकों की जानिब से एक ख़ास वर्ग की भाषा के रूप में चिन्हित करने का षड्यंत्र था, जो आज़ादी के बाद भी चलता रहा…। याद भी दिलाते हैं कि सारी भारतीय भाषाओं की उत्स और सबको जोड़ने वाली इस भाषा की इरादन उपेक्षा हुई। फ़िर आज बीजेपी शासन में जब यह लिखी गयी है, तो यह चिंतन कुछ और भी मायने दे सकता है। सोच व सरोकार की यह प्रासंगिक चेतना भी मानीखेज है। इसी के साथ मिशनरियों द्वारा सेवा के नाम पर खाने-पीने के सामान देकर ग़रीबों के बच्चों को लुभाकर अपने स्कूलों में खींच लेने की चालबाज़ी का पता लगने पर रामसियाजी ने अपने सेवाकाल के दौरान जाँच करायी थी और मिशनरी स्कूल की जगह ही अवैध क़ब्ज़े वाली पायी गयी थी, तो उसे बंद करा दिया गया था। सरोकारों की ऐसी ज़हीन चेतनाओं के प्रसंग और भी हैं। ‘दिव्य पीताम्बरा के दर्शन’ और ‘अष्टग्रही में एक साथ आयी पाँच विपत्तियों’ में विश्वास अवश्य धार्मिक व पुराणपंथी है, जो उस काल-परिवेश व अध्ययन की प्रकृति के चलते है, लेकिन उनसे निपटने की व्यावहारिकताएं निश्चय ही अनुकरणीय भी है।
इस यात्रा में परिवार-कथा साथ-साथ चलती है – चलनी ही थी। लेकिन ऊपर कहे पिता की हत्या वाले मामले की तरह ही सानुपातिक रूप से घर-परिवार का प्रतिशत पूरी पुस्तक में ही काफ़ी कम है- पुन: वही कि निजी बातें अपने मुख से क्या करनी!! लेकिन यहाँ कहना होगा कि जीवनी की संहिता अलग है। इसमें घर-बार के समान समावेश की मर्यादा ही मान्य है। लोग तो अपनी जाति-समुदाय के उद्भव तक से शुरू करते हैं और घर-परिवार की अर्गला में ही देश-समाज आता है। यहाँ पिताश्री ने देश-समाज-शिक्षा-संस्कृति की अर्गला में परिवार को टाँक भर दिया है। बेटे की उपलब्धियों के ज़िक्र तक नहीं, की बात ऊपर हुई। अब इस पर हंसें या रोएँ कि मां तक के स्वर्गवास पर एक बूँद आंसू नहीं गिरते आत्मकथा में। दो पृष्ठों का अध्याय अवश्य है, पर क्या बीमारी थी, क्या इलाज हुआ, कैसे अंत्येष्टि…आदि क़्रिया-कर्म हुए…सबकी कोई चर्चा नहीं। मां-बेटे के भावात्मक लगाव व ख़ालीपन के अनिवार्य ज़िक्र तक नहीं। वहाँ भी मां ने इन्हें किसी अंतरविद्यालयीन खेल-आयोजन में जाने की सहर्ष आज्ञा दे दी – याने सामाजिक व कर्म-निष्ठा के ही स्वर गुंजायमान हो रहे हैं…। पत्नी की मृत्यु की तो सूचना भर है। बेटे के जन्म की सूचना ‘पन्ना में रहते हुए मिली’ के बाद की पढ़ाई-शादी…आदि के भी उल्लेख भर हैं – गोया इनका होना कोई परिघटना ही नहीं!! हाँ, पुत्र योगेश के तिलकोत्सव के प्रसंग में अपने भांग व पान न खाने की आदत और इसके कारण हुई अपनी तबियत की साँसत की बात हो जाती है। नौकरी में तबादले…आदि के संदर्भ में ही अम्बिकापुर में अपनी ‘अमीबिएसिस’ की बीमारी व उससे झेली यातना भी सुनायी पड़ जाती है। बस, पहली बेटी की शादी का एक ज़िक्र उल्लेख्य है, क्योंकि वह पुन: सामाजिकता से ही बावस्ता है और उसमें पिताजी की भी एक अप्रगति चेतना का खुला स्वीकार है, जिसे यहाँ उसी लोक-चेतना की जानिब से ही लेना होगा…। अपने संकोची स्वभाव व घर के बड़ों के परम लिहाज़ के चलते सारे ज्ञान-समझ-सच के बावजूद तत्कालीन युग-समय के दबाव में चाचा से कह न पाये कि आप चाहें, तो अपनी बेटी की शादी कर लें, लेकिन उससे बड़ी सही, अपनी बेटी की शादी मैं अभी न करूँगा। मैं इसे पढ़ाऊँगा…। इसके बदले पारिवारिक संस्कारों के वशीभूत कह बैठे – ‘पिता के बाद अब इस घर के मालिक आप हैं। जैसा उचित समझें, करें…’। और इस तरह बेटी की शादी दस साल की उम्र में करा देने की कुरीति कर बैठे। शायद अचेतन में वह विधान भी रहा हो कि दस साल के बाद रजस्वला हो गयी कन्या के दान को शास्त्र दोषयुक्त मानता है –‘अष्टाब्दिका भवेत गौरी, नव वर्षा च रोहिणी। दशमे तु भवेत कन्या, अंत ऊर्ध्व रजस्वला’। शायद 7-8 वर्ष की उम्र में हुई अपनी शादी का सहज भोग भी रहा हो – याने रूढ़ परम्पराओं का ऐसा ग़ज़ब का दबाव…!! इसका पश्चात्ताप भी उन्हें आजीवन रहा, लेकिन वही कि ‘समय चूक पुनि का पछिताने’…!!
इस जीवन-यात्रा में भाषा व रचना-विधान…आदि की कोई चिंता नहीं की गयी है। जो जैसा आता गया, वैसा लिखा जाता रहा। लेकिन जैसे उनके सोच संस्कारी हैं, उसी तरह भाषा भी तब के व पिताजी के संस्कारों में विशुद्ध हिंदीमयता लिए हुए बिल्कुल निराबानी है– ‘श्री आर. सी. गुप्ता ने अनुभवहीनता का परिचय देते हुए कार्यालय के हम दो अधिकारियों और छह बाबुओं की गोपनीय वार्षिक चरित्रावलियों पर प्रतिकूल टिप्पणियाँ लगा दी थीं। हम सबने संचालक, लोकक्षिक्षण, म. प्र. के यहाँ अभ्यावेदन किया। प्रमाण दिये कि ये टिप्पणियाँ द्वेषपूर्ण भावना से लिखी गयी हैं, इसे विलोपित किया जाये। फलस्वरूप संचालक, लोकशिक्षण ने सभी की प्रविष्टियों को विलोपित कर दिया। उनके मार्गदर्शन में संभाग के विद्यालयों में शिक्षकों-व्याख्याताओं के पदाँकन व स्थानांतरण सम्बन्धी व्यवस्थाएँ उपयुक्त थीं। उनके वेतन-भत्ते और अन्य सभी प्रकार के स्वत्वों के भुगतान समय-सीमा में हो रहे थे’। (पृष्ठ – 99)
कहना होगा कि जिस तरह इस यात्रा में समाहित जीवन आज विलोपित हो गया है, उक्त भाषा व शब्द भी विलोपित हो गये हैं। त्रिपाठीजी की यह जीवन-यात्रा इस अभाव का अहसास दिलाने और फिर से उन मूल्यों व शब्दों को पुनरुज्जीवित करने, उन्हें जीवन-व्यवहार में उतारने की आकांक्षा जगाती है। (सम्पूर्ण)
(लेखक साहित्य, कला एवं संस्कृति से जुड़े विषयों के विशेषज्ञ हैं)