प्रदीप सिंह ।

किसी भी देश की राजनीति में राजनीतिक पूंजी नेता की सबसे बड़ी ताकत होती है। नेता इसका इस्तेमाल बड़ी किफायत से करते हैं और इस बात के प्रति सजग रहते हैं कि इसमें कमी न होने पाए। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के पास राजनीतिक पूंजी बहुत ज्यादा है। पर वे इसका इस्तेमाल बड़ी दरियादिली से करते हैं। ऐसा लगता है जैसे उनको इसका अक्षय पात्र मिल गया हो। किसान आंदोलन के माहौल में कोई भी प्रधानमंत्री लोकलुभावन घोषणाओं का सहारा लेता। इसके विपरीत मोदी सरकार ने ऐसी कोई घोषणा नहीं की। बजट के जरिए मोदी विकास की राजनीति की एक नई इबारत लिख रहे हैं। यह कमजोर दिलवालों के बस की बात नहीं है।


विपरीत परिस्थितियों में ऐसे कदम

सवाल है कि क्या मोदी बड़ा राजनीतिक जोखिम मोल ले रहे हैं। बात सिर्फ इतनी नहीं है कि वे एक के बाद एक नये नये आर्थिक सुधार के ऐसे कदम उठा रहे हैं जो राजनीतिक घाटे का सौदा बन सकते हैं। इन कदमों का महत्व इसलिए और बढ़ जाता है कि ये विपरीत परिस्थितियों में उठाए जा रहे हैं। खराब परिस्थितियां केवल राजनीतिक नहीं हैं बल्कि कोरोना के कारण पूरी दुनिया में संकट है। उनके राजनीतिक विरोधियों के दो वर्ग हैं एक दाएं-बाएं देखकर विरोध करता है। दूसरा, अहिर्निष विरोध में लगा रहता है। मोदी का विरोध बाहर ही नहीं घर में भी है। संघ परिवार के विभिन्न आनुषांगिक संगठनों में से कोई एक समय समय पर विरोध की आवाज बुलंद करता ही रहता है। किसानों के नाम पर एक आंदोलन भी चल रहा है। जो अहिंसक से हिंसक हुआ और गैर राजनीतिक से राजनीतिक। विरोध के इस वातावरण में किसी भी सरकार के हाथ-पांव फूल सकते हैं।

मोदी विरोध में सब जायज

विरोध का आलम यह है कि तिरंगे का अपमान, गणतंत्र दिवस की मर्यादा को तार तार करने, लाल किले की पवित्रता और रक्षक पुलिस वालों पर जानलेवा हमला करने वालों का भी समर्थन किया जा रहा है। आपने इससे पहले देश में कोई ऐसा आंदोलन देखा है जिसमें पांच सौ पुलिस वाले घायल हो जायं, पुलिस वालों पर लाठी, डंडे, लोहे के रॉड से ही नहीं तलवार से भी हमला हो और आंदोलनकारी सीना तान कर घूम रहे हों। जैसे कि पीड़ित ही दोषी हों। ट्रैक्टरों को अभी तक हमने खेतों में चलते देखा था। छब्बीस जनवरी को पहली बार उन्हें हथियार के रूप में इस्तेमाल होते देखा। उनके लिए यह सब जायज है जब तक वह मोदी के विरोध में हो। पर मोदी इन सब बातों से कतई विचलित नहीं लगते। अपने समर्थकों और देश के आमजन की सहज बुद्धि न्याय पर शायद ही किसी प्रधानमंत्री को ऐसा भरोसा रहा हो। उनके मन में यह बात बहुत गहरे बैठी हुई है कि लोग ईमानदार आदमी का साथ देते हैं।

लोकप्रियता, विश्वसनीयता बढ़ी

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दरअसल भारतीय समाज के मानस में एक बात गहरे पैठी हुई है कि ईमानदार आदमी अच्छा होता है। और अच्छा इसलिए होता कि वह व्यक्तिगत स्वार्थ पर समाज के स्वार्थ को वरीयता देता है। इसीलिए विपक्ष के इतने बड़े नेताओं के होते हुए भी उन्हें 1975 में एक जयप्रकाश नारायण, 1986-87 में एक वीपी सिंह और 2011 में एक अन्ना हजारे की जरूरत पड़ी। उपर्युक्त तीनों अवसरों पर सत्तारूढ दल और उसके नेतृत्व पर भ्रष्टाचार के आरोप थे। जनमानस में उनकी विश्वसनीयता नहीं रह गई थी और लोकप्रियता निचले पायदान पर थी। जेपी, वीपी और अन्ना के सफल होने का यह एक बहुत बड़ा कारण था। विपक्ष के दुर्भाग्य से उसके सामने ऐसा कोई नेता नहीं है। देश के सौभाग्य से वर्तमान सरकार का नेतृत्व ईमानदारी की मिसाल है। उसकी लोकप्रियता और विश्वसनीयता कम होने की बजाय बढ़ी ही है। मोदी से पहले केवल नेहरू ही ऐसे प्रधानमंत्री थे जो सत्ता में आने के डेढ़ दो साल बाद भी विश्वसनीय और लोकप्रिय बने रहे।

नीयत अच्छी तो नतीजा अच्छा

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कहावत है कि अच्छी अर्थनीति खराब राजनीति होती है और अच्छी राजनीति खराब अर्थनीति। मतलब यह कि दोनों को एक साथ साध नहीं सकते। पर ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ‘एकै साधे सब सधें, सब साधे सब जाय’, की नीति में विश्वास करते हैं। पिछले करीब पौने सात सालों ने यह दिखाया है कि अर्थनीति हो या राजनीति फैसले अच्छी नीयत से किए जायं तो नतीजा अच्छा ही निकलता है। जब जब संकट की घड़ी आई है मोदी ने देश के लोगों पर भरोसा किया और देशवासियों ने मोदी पर। नेता और जनता के इस परस्पर भरोसे की तुलना कुछ हद तक जवाहर लाल नेहरू के समय से की जा सकती है। जब कांग्रेस के लोग मानकर चलते थे कि नेहरू जो कहेंगे देश उसी को सच मानेगा। इस समय ऐसा लगता है कि देश के लोग मानकर बैठे हैं कि दर्द/संकट कितना भी बड़ा हो उसकी दवा/हल मोदी के पास ही है।

निस्तेज और साख विहीन विपक्ष

लगभग चार दशक से ज्यादा समय से मैं भारतीय राजनीति को करीब से देख रहा हूं। मुझे याद नहीं कि कभी विपक्ष इतना निस्तेज और साख विहीन रहा हो। यह स्थिति जनतंत्र के लिए अच्छी नहीं है लेकिन वास्तविकता को नजरअंदाज तो नहीं किया जा सकता। इससे एक बात साबित होती है कि किसी भी  सरकार के खिलाफ मुद्दा हो तो विपक्ष की ताकत बढ़ती है। पर यह भी सही है कि मुद्दे केवल अवसर देते हैं। अवसर का लाभ उठाने के लिए विश्वसनीयता जरूरी होती है।

नये भारत के अभ्युदय का संकेत

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने अपने बजट भाषण में गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर की कविता का उद्धरण दिया था। जिसका अर्थ था कि चिड़ियों को पौ फटने से पहले ही रोशनी का आभास हो जाता है और वे चहचहाने लगती हैं। कोरोना महामारी से देश जिस तरह निपटा, चीन को सीमा पर जिस तरह का जवाब दिया गया, वैक्सीन के विकास और वैक्सीनेशन में जिस तरह की पहल हुई और अब बजट के जरिए आर्थिक मोर्चे पर जिस तरह की पहल कदमी हुई है, वह नये भारत के अभ्युदय का संकेत दे रहा है। मोदी ने न केवल इस संकेत को पहचान लिया बल्कि इसकी पूरी तैयारी भी कर ली।

कमजोरी, हीनभाव से उपजी निंदा

आने वाला समय भारत का है और उसके स्वागत की तैयारियां पूरी हो चुकी हैं। यह बात तमाम दुनिया को नजर आ रही है। कुछ लोगों को यह बात समझ में नहीं आ रही। क्योंकि उनकी निन्दा कमजोरी और हीन भावना से उत्पन्न हुई है। जब आप कर्म के मामले में कमजोर होने लगते हैं तो निन्दा आपके स्वभाव का स्थायी भाव बन जाती है। हरिशंकर परसाई ने लिखा है कि ‘ईर्ष्या-द्वेष से प्रेरित निन्दा करने वाले को कोई दंड देने की जरूरत नहीं है। वह निन्दक बेचारा स्वयं दंडित होता है। आप चैन से सोइए और वह जलन के मारे सो नहीं पाता। निरन्तर अच्छा काम करते जाने से उसका दंड भी सख्त होता जाता है।‘ हम और आप ऐसा होते हुए देख रहे हैं।
(दैनिक जागरण से साभार)


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