सत्यदेव त्रिपाठी
जोखना एक ऐसा वास्तविक पात्र है जो जमीन का मालिक है लेकिन जिसे उसने अपना खेत बंटाई पर दिया है उसके यहां नौकरों की तरह रहता है… कई सत्य ऐसे होते हैं जिन्हें स्वीकार करना आसान नहीं होता, वैसा ही यह भी है।


 

जी हां, जोखन सिंह को पूरा गांव ‘जोखना’ कहता है। उसके पास वह सब कुछ है, जिससे उसे मुख्य धारा में होना चाहिए… गोइंडे (आबादी के पास) का ऐसा बोंडरी (बहुत उपजाऊ) 5 बीघा खेत अभी भी बचा है, जिसके आधे से भी 6-8 सदस्यों का परिवार आराम से गुजर कर सकता है। उसके पास अभी इतना बड़ा घर भी बचा है कि एक ‘छोटा परिवार, सुखी परिवार’ हो सकता है… लेकिन जोखना है कि अपने पड़ोस के सिंह के यहां रहता है, वहीं खाता-पीता है। जाहिर है कि वे लोग कपड़े भी दे देते होंगे और तम्बाकू भी, जो जोखन खाता है तथा गाहे-बगाहे जेब-खर्च के लिए पैसे भी। क्योंकि जोखना का वो पांच बीघा खेत यही लोग जोतते-बोते हैं, जिसके बदले उसका खान-खर्च चलाते हैं।

मामला बहुत घरेलू-सा है

पूरे दिन जोखना उन्हीं के बरामदे या चबूतरे पर बैठा-लेटा पड़ा रहता है- गांव के चक्कर भी लगा लेता है, लेकिन रात को सोने के लिए अपने घर जाता है, ऐसा उसी ने मुझे बताया, जब मैं कभी कुतूहलवश उसका बचा हुआ घर व मुहल्ला बहुत दिनों बाद देखने चला गया था। यूं तो उसका काम नहीं है कि सिंह साहेब के घर कोई काम करे, पर रहते हुए घर में जो भी काम पड़ता है, कर ही देना होता है- पशुओं को चारा-पानी देना, तो चारा काटके ला देना खेत से, उसे तैयार करना और मशीन में बाल (काट) लेना… फिर खेती के समय खेत में भी कोई काम अटक गया, तो करा देना… और घर-दुआर की सफाई भी करना तथा गाहे-बगाहे कोई न हुआ, तो पशुओं का गोबर भी फेंक देना… यानी घर-बार, खेती-बारी का सब कुछ, जितना जोखन कर सकें या सिंह लोग करा सकें… मामला बहुत घरेलू-सा है। लेकिन कुल मिलाकर तकनीकी ढंग से देखा जाये, तो जोखना यहां खाने-पहनने पर नौकरी करता है, जिसमें पहनना तो चित्र में देखा ही जा सकता है! हां, खाने का सुपरिणाम भी शरीर ही बता दे रहा है।

दुनिया का कुछ पता नहीं उसे

ऐसे अफाट हाशिए पर पड़े जोखन सिंह की उम्र होगी कोई पचास साल, पर दुनिया का कुछ पता नहीं उसे (वरना अपनी खेती करके अपने घर में रहता)… मोदी और राहुल गांधी तो क्या, उसे महात्मा गांधी-नेहरू का भी पता नहीं। न क्रिक्रेट, न फिल्म- यहां तक कि कोई सीरियल भी नहीं देखता, न जानता। पहले तो पैसा भी नहीं गिन पाता था, अब शायद गिन लेता हो। फिर वह अपनी खेती तो क्या कर-करा पायेगा! लेकिन ऐसा जोखन सिंह पागल-वागल बिल्कुल नहीं है। मेरे मास्टर होने का उसे पता है- मुझे ‘मास्टर भइया’ कहता है। सारे गांव से अपना रिश्ता जानता है। उसके पिता बाबू राम लखन सिंह को हम ‘लखन काका’ कहते हुए बड़े हुए हैं। और उस लखन काका की दिलफेंक हसरतें पचास के आस-पास की उम्र में सारी बाड़ें तोड़कर बेकाबू हो गईं, फलत: उनके लिए खरीद कर लायी गई एक लडकी। उन दिनों बहुतेरे लडकों की शादियां बर (रह) जाती थीं और खरीद कर लाने की प्रथा का ‘बाइपास’ रातों को चलता था। लड़की को देखते ही पूरे गांव की औरतें जान गईं कि वह ‘महा पगलेट’ है, पर लखन काका ने कुछ परवाह न की। उसी लड़की ने औरतों को बताया कि सूअर चराते हुए लोग उसे जबर्दस्ती उठा लाये हैं- याने लाने वाले इसे हर लाये और खेत बेचकर लाया हुआ लखन काका का सारा पैसा हजम कर गये। पर काका को लत लगा गये। ढलती उम्र की बेलगाम कामान्धता और जंगली-पगलेट लड़की के अनाड़ीपन में खाने की दुर्दशा… खेती उठ गई अधिया पर और इधर कटने लगे खंसी और मुर्गे… लखन काका एक खाते, तो तीन खिलाने वाले खा जाते। बिकने लगे खेत पानी के भाव। बहुत बड़े घर और आसपास ढेर सारी जगह का भी आधा हिस्सा बिक गया। पर होश नहीं आया खब्ती लखन काका को। आखिर लखन सिंह मरे और पगलेट पत्नी सब छोड़कर किसी के साथ भाग गई।

घर आधा बना… तब तक पैसे खत्म हो गये

तो इसी खब्ती काका और पगलेट मां से जन्मी पहली लड़की के बाद की संतान है जोखना। लड़की तो खेलते हुए कूएं में गिरकर खत्म हो गई। एक छोटी लड़की भी थी, जिसकी शादी हो गई। अब जोखना है, जो अपने डीएनए का खामियाजा भुगत रहा है। इसका छोटा भाई भी है ढोंढई। वो भी भुगत रहा है, पर वह बौड़म भी है और आवारा टाइप भी, लेकिन वह घर-गांव में टिकता कम है। उसकी शादी भी हुई, पर पत्नी भाग गई। सुना कि ढोंढई की वसीयत करा दी गई है उसकी छोटी बहन के नाम, ताकि उसके न रहने पर पत्नी आकर दावा न कर दे। इन दोनों भाइयों ने भी काफी खेत बेचे, घर का भी बड़ा हिस्सा बेचा… फिर पड़ोसी ठाकुर ने यह व्यवस्था की। मुझे इस बात की पड़ी है कि जोखन का जीवन ऐसे ही बीत जाएगा क्या? न कोई हसरत, न कोई स्मृति। न सुख की आशा, न दुख की समझ, तो फिर दुख से निजात पाने की कोशिश भी कैसे हो?
पिछले दिनों थोड़ा और खेत बेचकर जोखन-ढोंढई के लिए खेत की खुली जगह में अच्छा घर बनवाने की योजना बनी, जो आधा बना भी। लेकिन तब तक पैसे खत्म हो गये। होने ही थे- बिना मालिक की भैंस पांडा को ही जन्म देती है। अब और खेत बिके, तो बने। फिर होगा कि खेत बचे, तो बिके, तो बने! हिन्दी में एक नाटक है, जिसमें आधुनिक शाहजहां अपनी बेगम के लिए ताजमहल बनवा रहा है और खजाना खाली हो जाता है, ताजमहल नहीं बन पाता- जबकि तब तक ठेकेदार, अभीयंता व शिल्पकार (आर्किटेक्ट) आदि सबके बंगले बन जाते हैं। उधर शाहजहां मर भी जाता है। जोखन भी तो शाहजहां है- जिनको कछू न चाहिए, वो शाहन के शाह।


प्रकाश नामदेव ठाकरे : इतने हुए ‘मजबूर’ कि खुद्दार हो गये