जयराम शुक्ल।
समय की गति के हिसाब से हर नया विहान ही नया वर्ष है। हर क्षण अगले क्षण की पृष्ठभूमि बनता जाता है। सृष्टि के अस्तित्व में आने के बाद से समय की गति ऐसी ही है… ऐसी ही चलती रहेगी महाप्रलय तक। महाभारत का एक दृष्टान्त है- राजसूय यज्ञ के उपरान्त महाराज युधिष्ठिर ने प्रजा को दान देने के लिए राजसी खजाने को खोल दिया। जो भी याचक आया उसे धन धान्य देकर सम्पन्न किया। दान का सिलसिला देर रात्रि तक चलता रहा।महाराज युधिष्ठिर दान देते-देते थक गए व विश्राम गृह में चले गए इस निर्देश के साथ कि उनके शयन विश्राम में कोई बाधा न बने। रात के तीसरे पहर एक याचक आया दान प्राप्त करने की अभिलाषा के साथ। द्वारपाल बने भीम ने युधिष्ठिर के निर्देश की अवज्ञा करते हुए उनके शयन कक्ष में दस्तक दी व अनुनय किया- महाराज बाहर एक याचक खड़ा है, आपसे दान प्राप्त करने की प्रतीक्षा में। विघ्न से क्लान्त युधिष्ठिर बोले- याचक को कह दिया जाए कि वह प्रात:काल आए उसे उसकी अपेक्षा के अनुरूप धनधान्य दिया जाएगा। महाबली भीम बाहर आए और ढोल-नगाड़े वालों को बुलाकर जश्न मनाने लगे- महाराज युधिष्ठिर की जय हो..! उन्होंने काल को जीत लिया है..! काल अब उनके अधीन है..! उनकी प्रज्ञा को यह भान हो गया है कि अगले क्षण क्या होने वाला है।
ढोल-ढमाकों शंखनाद को सुनकर युधिष्ठिर बाहर आए व भीम से पूछा क्या हुआ? इस उल्लास का कारण? भीम ने उत्तर दिया- कारण तो आप हैं महाराज। आपने काल पर भी विजय प्राप्त कर ली। आप त्रिकालदर्शी हो गए महाराज इसीलिए याचक को कल प्रात:काल आने का संदेश भिजवाया। युधिष्ठिर को अपनी भूल का भान हुआ। ठीक कहते हो भीम अगले क्षण क्या होगा… कौन जान सकता है? उन्होंने उसी क्षण याचक को दान देकर धन-धान्य से सम्पन्न किया और अनुज भीम से अपनी भूल के लिए क्षमा मांगी।
अगले क्षण क्या होने वाला है। कोई कैसे जान सकता है, पर दुनिया का हर व्यक्ति इसी भुलावे में जिन्दगी जीता है और अगले क्षण की परिकल्पना करते हुए भविष्य के जतन में जुटा रहता है। मृत्यु के ध्रुवसत्य को जानते हुए भी जिन्दगी भर खुद को भुलावे में रखता है। यही जिजीविषा उसे अन्य प्राणियों से भिन्न बनाती है। दुनिया भर के सभी प्रपंच इसीलिए जिजीविषा के इर्द-गिर्द रचे जाते है। बाजार और उपभोक्तावाद भी इसी जिजीविषा का सहउत् पाद है और युद्ध व साम्राज्यवाद के विस्तार की आंकाक्षा भी।
‘नया वर्ष’ जैसे कर्मकाण्डी उपक्रम भी बाजार की देन है वरना देखा जाए तो नए वर्ष में नया क्या..? समय की वही गति-लय और समाज के वहीं सब प्रपंच। पर मिथ्याचारियों ने कैलेण्डर के एक पन्ने के पलटने को भी भौतिकवादी अर्थशास्त्र से जोड़ दिया। हर व्यवस्थाएं भुलावे के मायाजाल का वितान तानकर मनुष्य को ‘मूर्खों के स्वर्ग’ (फूल्स पैराडाइज) में जीने का प्रलोभन देने में जुटी हैं।
सृष्टि में, समाज में जो कुछ भी बनता बिगड़ता है वह विधि के तयशुदा विधान के ही मुताबिक होता है। प्राय: हम यह मानकर चलते है कि परिवर्तन अग्रगामी ही होता है। जैसे पिछले नए वर्ष में हमने उम्मीदें पाली थीं कि दुनिया खुशहाल और विषमता से मुक्त होगी। हर क्षेत्र में ऐसे नवाचार होंगे जो मनुष्य की मुश्किलों का नया हल देंगे। मार-काट, युद्ध, आतंक, शोषण इन सबके अन्त की ठोस शुरूआत होगी।
पर पाया क्या… दुनिया फिर बर्बर युग की ओर मुड़ चली है। तीन चौथाई दुनिया युद्ध और आतंकवाद की विभीषिका में फँसी है। बड़े, बूढ़े, जवान बच्चे-मासूम,मजलूम सभी गाजर-मूली की तरह काटे जा रहे हैं। युद्ध और आतंक की ज्वालाएं अखण्ड हो चली हैं। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि तीसरे और अंतिम विश्व युद्ध का ताना-बाना बुना जा रहा है। वसुधैव कुटुम्बकम् के जिस नए नारे के साथ नई सदी का आगाज किया गया था सब कुछ उसके उलट हो रहा है। हर क्षेत्र में एक विचित्र किस्म का ध्रुवीकरण होता हुआ दिख रहा है। पीडक और पीड़ित, शोषक और शोषित, धनी और गरीब, कुलीन और असभ्य। ध्रुवीकरण की प्रक्रिया तेज और तेज होती जा रही है।
अपने देश में भी यही सब कुछ होता हुआ दिख रहा है। अमीरी का सूचकांक तय करने वाली एजेन्सियां प्रतिवर्ष भारतीय धनकुबेरों की सम्पत्ति एवरेस्ट की ओर बढ़ती हुई दर्शाती हैं। उसी के मुकाबले गरीबी की सीमा भी रसातल की ओर चली जाती है। सूची में चार नए अमीर शामिल होते हैं तो चार लाख लोग गरीबी की ओर खिसक जाते हैं। संसाधनों का अन्यायपूर्ण बंटवारा इस विषमता की खाई को हर नए वर्ष में और गहरा कर देता है।
सृष्टि के सनातनी नियम के अनुसार न कुछ पैदा होता है और न ही कुछ नष्ट होता है। बस रूप बदलता है। हिस्सेदारी बनती-बिगड़ती व कम ज्यादा होती है। हर साम्राज्य शोषण की बुनियाद पर खड़ा होता है। हर धनी की अर्जित सम्पत्ति किसी न किसी के हिस्से की होती है। फिल्म गीतकार शैलेन्द्र ने बड़े सहज शब्दों में इसकी अभिव्यक्ति दी है- तुम अमीर इसलिए कि हम गरीब हो गए। लोकतंत्र, संविधान, कानून, विधि-विधान, धर्म व पंथ की संहिताओं के बावजूद समूची दुनिया में ‘मत्स्य- न्याय’ ही चल रहा है। पिछले वर्ष भी ऐसा चला। इस नए वर्ष में भी इस चलन को रोकने वाली कोई व्यवस्था नहीं दिखती।
एक खयाली दुनिया रची जा रही है विकल्प के रूप में भी वहीं सामने प्रस्तुत है। रिश्ते-नाते-सम्बन्ध सबके मायने बदल रहे हैं। समाज की सनातनी वर्जनाएं टूटती सी जा रही है विकृतियां सैलाब सी बनकर उमड़ रही है। हम सब आंखें फाडकर देख रहे हैं, नि:सहाय। शायद सृष्टि के नियम और विधि के विधान यही हैं। इन तमाम, विकृतियों-विरोधाभाषों, विषमताओं के बाद भी हममें जीने की जो जीजिविषा है वही हमारे मनुषत्व का उद्घोष है। वही हमें मनुष्य बनाती है। यह जीजिविषा बनी रहे लेकिन शर्त है कि उम्मीदों से भरी हुई। हम हर पल में सम्पूर्ण जीवन जिएं। हर क्षण उत्सवी रहे। मनुष्यता की जो भी परिभाषा या विशेषता है, उसे हम यथार्थ में उतारें।
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यदि हम वास्तव में मनुष्य बनकर जिएं तो दुनिया में कोई समस्या हो ही नहीं। आज के दौर का सबसे बड़ा संघर्ष मनुषत्व को बचाए रखने का है। हर समाज के मूल में एक तत्व है। इन तत्वों का आधार संवेदना है। यही संवेदना अच्छे-बुरे को चीन्ह पाती है। इस संवेदना की तीव्रता को सतत् बनाए रखना जरूरी है। संवेदना गई तो, तो समझो मनुष्य पशुवत् हुआ। नए वर्ष के बाजारू कर्मकाण्ड से हटकर हर विहान को नए वर्ष की भांति स्वागत् करें। काल गति-समय के विधान को जानते हुए। अगले पल क्या होने वाला है, युधिष्ठिर की भांति हम भी नहीं जानते सो इसलिए कल के लिए कुछ न छोड़ें।
जिन्दगी के कल के एजेन्डे को आज ही निपटाएं, आज हीं क्यों… इसी क्षण। कवि ने कहा है- काल करे सो आज कर, आज करे सो अब। पल में परलय होइगी बहुरि करेगा कब।। जिन्दगी के सफर की गाड़ी में रिवर्स गेयर का प्रावधान नहीं है। हम जिधर चल पड़े हैं वहां से लौटकर आने वाले नहीं। इस अनंत यात्रा में हम सब शामिल हैं। विश्व के जन-जन शामिल हैं। इसलिए जिन्दगी का उत्सव मनाने के लिए अगले नव वर्ष का इन्तजार करने की आदत छोड़ दें। यह उत्सव जीवन के पल प्रतिपल में मनाएं। गीतकार नीरज की नसीहत का स्मरण करते हुए – मित्रो, हर पल को जियो अंतिम पल ही मान। अंतिम पल है कौन सा कौन सका है जान।।(एएमएपी)