डॉ. संतोष कुमार तिवारी।
स्वामी अखण्डानन्दजी सरस्वती (25 जुलाई 1911 से 19 नवम्बर 1987) का आज जन्म दिन है। उनका जन्म वाराणसी के पास महरई गाँव में हुआ था। परिवार ने उनका नाम नाम शांतनु बिहारी द्विवेदी रखा। वह सरयुपारी ब्राह्मण थे। उनका जन्म कुण्डली देख कर ज्योतिषियों ने बताया कि उनकी मृत्यु 19 वर्ष की आयु में हो जाएगी। ज्यों-ज्यों उनकी आयु बढ़ी, उनमें यह भावना जगी कि मैं अपनी भक्ति-कर्म और साधना से ज्योतिषियों की भविष्यवाणी का मुक़ाबला करूंगा।
अखण्डानन्दजी जब दस साल के थे, तभी उनके दादा ने उन्हें मूल भागवत को संस्कृत में पढ़ना सिखाया था। फिर उन्होंने सन्यास लेने का फैसला किया और घर से निकल पड़े। प्रयाग पहुंचे। वहाँ झूंसी में प्रभुदत्त ब्रह्मचारीजी (1885 – 1990) के आश्रम में रहे। आश्रम में उड़िया बाबा (1875-1948) और गीता प्रेस की आध्यात्मिक मासिक पत्रिका ‘कल्याण’ के आदि संपादक हनुमान प्रसादजी पोद्दार (1892-1971) का आना-जाना था। पोद्दारजी उन्हें गोरखपुर ले आए। गीता प्रेस में वह ‘कल्याण’ के सम्पादकीय बोर्ड के सदस्य थे। आज जो हम गीता प्रेस की रामचरितमानस पढ़ते हैं, उसके प्रकाशन में शांतनु बिहारी द्विवेदीजी का भी महत्वपूर्ण योगदान था। गीता प्रेस के लिए उन्होंने कई किताबें लिखीं। कई लेख भी लिखे।
उड़िया बाबा के वेदान्त दर्शन से वह बहुत प्रभावित थे। उड़िया बाबा ने भी उनको सन्यास लेने के लिए प्रेरित किया। शांतनु बिहारी द्विवेदीजी ने अपनी सन्यास दीक्षा जाने माने ज्योतिषाचार्य स्वामी ब्रह्मानन्द और शंकराचार्य जी से ली थी। फिर वह स्वामी अखण्डानन्दजी सरस्वती कहलाए। उन्होंने वृन्दावन में ‘आनन्द वृन्दावन आश्रम’ स्थापित किया। इस आश्रम में आज भी कई सार्वजनिक कार्य होते है। वेदों के पठन पाठन आदि की भी व्यवस्था है और रोगियों का मुफ्त इलाज भी होता है।
ज्योतिषियों ने स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती जी की आयु 19 वर्ष बताई थी। परन्तु उन्होंने अपने भक्ति-कर्म और साधना के माध्यम से जीवन के 76 वर्ष पूरे किए। और 19 नवम्बर 1987 को महासमाधि ली।
स्वामी अखण्डानन्दजी की एक पुस्तक है ‘भक्ति रहस्य’। यह सन् 1938 में प्रकाशित हुई थी। इस पुस्तक में उन्होंने बहुत सरल ढंग से सुख का मार्ग बताया है।
सुख का मार्ग
विचारशील मनुष्य के सामने सबसे पहले यह प्रश्न आता है कि हमें क्या चाहिए। मनुष्य कुछ न कुछ चाहता है। कोई सुन्दर शरीर चाहता है। कोई आजीवन शासक बनना चाहता है। परन्तु ये भी जीवन के वास्तविक उद्देश्य नहीं हैं। क्योंकि इनके द्वारा सुख ही चाहा जाता है। यदि ये दुख के कारण बन जाएँ, तो इनके भी परित्याग की इच्छा होती है। और परित्याग कर दिया जाता है। इसलिए यह बात स्वत: सिद्ध हो जाती है कि मनुष्य जीवन का लक्ष्य परम सुख की प्राप्ति है। वह सम्पूर्ण शक्ति से इस परम सुख को प्राप्त करने की चेष्टा करता है। और इसी चेष्टा व प्रयास का नाम साधन है।
साधारण मनुष्यों पर यदि दृष्टि डाली जाए, तो यह साफ दिखाई देता है कि सभी किसी न किसी साधन में जुटे हुए हैं। और ऐसा होने पर भी वे दुखी और निराश हैं। तमाम साधन करके उन्हें जो आत्म संतुष्टि मिलनी चाहिए, उससे वे वंचित हैं। शान्ति और गंभीरता से विचार करने पर यह मालूम होता है कि उन्होंने जीवन का उद्देश्य निश्चित करने में ही भूल की है।
भगवान का स्वभाव है कृपा बरसाना
सूर्य का स्वभाव है कि अपनी आलोक रश्मियों को फैला कर पूरे संसार में नवीन चेतना और संचार पैदा करना। यदि कोई नेत्र दोष के कारण उस प्रकाश को नहीं देख पाता है, तो यह नेत्र के रोग का ही दोष है। सूर्य का दोष नहीं है। इसी प्रकार भगवत् कृपा होने पर भी, रहने पर भी, यदि हम उसको नहीं देख पाते हैं, तो यह हमारा दोष है। भगवत् कृपा का दोष नहीं है। जो उस भगवत् कृपा का जितना अधिक अनुभव कर पता है वह उतना ही सुखी है।
तो इस भगवत् कृपा को समझ पाने की और अनुभव करने की चेष्टा करना ही सच्चा साधन है। और यही सुख के मार्ग पर आगे बढ़ने का पहला कदम है।
‘भक्ति रहस्य’ पुस्तक इस नीचे दिये गए लिंक पर पढ़ी जा सकती है:
https://archive.org/details/
स्वामी अखण्डानन्दजी की अन्य कई पुस्तकें गीता सेवा ट्रस्ट ऐप (https://gitaseva.org/app) डाउनलोड करके उस पर भी फ्री में पढ़ी जा सकती हैं।
(लेखक झारखण्ड केन्द्रीय विश्वविद्यालय के सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं।)