डॉ. संतोष कुमार तिवारी।
एम.एल. दत्ता का पूरा नाम क्या था- यह मुझे नहीं मालूम था। परन्तु वे अद्भुत व्यक्ति थे। बड़े निस्वार्थी थे। बड़े मददगार थे। ईश्वर में पूरी आस्था रखने वाले थे।

पहली मुलाकात

मेरी उनसे पहली मुलाकात नई दिल्ली के इन्दिरा गांधी एयरपोर्ट के टर्मिनल-1 पर हुई थी। वह वहां पोस्ट ऑफिस में काम करते थे। वह सिंगल-मैन पोस्ट ऑफिस था। अर्थात वहां उस पोस्ट ऑफिस में उनके अतिरिक्त कोई अन्य कर्मचारी नहीं था। पोस्ट ऑफिस में उनका पद क्या था- यह भी मुझे आज तक पता नहीं।
मेरी उनसे मुलाकात कुछ ऐसे हुई कि एक बार मैं भारत सरकार के काम से दिल्ली में इंडिया गेट के पास एक गेस्ट हाउस में रुका हुआ था। वहां मैं सवेरे लगभग नौ बजे नाश्ता कर रहा था। नाश्ता करते वक्त मुझे किसी ने बताया कि यह पूरा इलाका बहुत जल्दी ही सील कर दिया जाएगा। अर्थात उस इलाके में किसी वाहन के आने जाने पर रोक लग जाएगी। इसका कारण यह था कि अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा भारत आए हुए थे और उन्हें वहां पास के एक रास्ते से गुजरना था। वहां आकाश पर से भी किसी हवाई जहाज के उड़ने पर रोक लगी थी।

गेस्ट हाउस के कमरे की चाबी

जब मुझे यह सब पता चला तो मैंने सोचा कि सुबह का ब्रेकफास्ट करने के फौरन बाद यहां से निकल लिया जाए और सीधे एयरपोर्ट चला जाऊं, हालांकि एयरपोर्ट से मेरी फ्लाइट शाम की थी। फिर भी मैं सावधानी बरतते हुए वहां से निकल गया। एक टैक्सी बुलाई और सुबह इन्दिरा गांधी एयरपोर्ट  के टर्मिनल-1 पर आ गया।
मेरी फ्लाइट तो शाम की थी। इस कारण मैं टर्मिनल-1 पर ऐसे ही समय पास करने के लिए घूम रहा था। अचानक जेब में हाथ डाला तो देखा कि मैं जिस गेस्ट हाउस के कमरे में रुका था, उस कमरे की चाबी मैं अपने साथ ही ले आया हूं। यह चाबी मुझे गेस्ट हाउस छोड़ने के समय वहाँ वापस करनी चाहिए थी।
मेरे समझ में नहीं आया कि अब मैं क्या करूं? इस चाबी को कैसे वापस करूं? तभी मैंने देखा कि टर्मिनल-1 पर एक पोस्ट ऑफिस भी है। मैंने पोस्ट ऑफिस के काउंटर पर बैठे सज्जन से अपनी राम-कहानी बताई। और उनसे कहा कि मैं इस चाबी को पोस्ट ऑफिस से स्पीड पोस्ट के जरिए उस गेस्ट हाउस को भेज देना चाहता हूं।
पोस्ट ऑफिस के काउंटर पर बैठे सज्जन ने जवाब दिया कि उनका कंप्यूटर पिछले एक हफ्ते से नहीं चल रहा है। इस कारण वहां से कोई स्पीड पोस्ट नहीं हो सकती।
मैंने उनसे बहुत आग्रह किया कि आप किसी प्रकार से यह स्पीड पोस्ट कर दें। परन्तु उनका लगातार यह कहना था कि जब तक कंप्यूटर  ठीक नहीं होता, तब तक स्पीड पोस्ट नहीं की जा सकती।

‘आप मेरी कार ले जाएं’

फिर भी उन्होंने सज्जनता दिखाते हुए मुझे पोस्ट ऑफिस के अन्दर बुला लिया और बैठने के लिए एक कुर्सी दी। तब उन्होंने मुझसे कहा कि आप मेरी कार ले जाएं और यह चाबी उस गेस्ट हाउस में वापस कर दें। मुझे लगा कि यह आदमी मुझसे मजाक कर रहा है, परन्तु ऐसा नहीं था। मैंने उनसे कहा कि मैं कार ठीक से चला नहीं पाता हूं और दिल्ली के ट्रैफिक में तो चला ही नहीं चला सकता हूं।
तब उन्होंने मुझसे कहा कि लंच टाइम पर वह मुझे अपनी कार से ले चलेंगे ताकि मैं चाबी को वापस कर सकूं। तब मैं उन्हीं के बगल में बैठ कर पोस्ट ऑफिस में लंच के टाइम का इंतजार करने लगा।
वह बताने लगे- लंच टाइम के पहले मैं नहीं चल सकूँगा, क्योंकि एक बार लंच टाइम से थोड़ा पहले मैं खाना खाने के लिए उठ लिया था। तभी वहाँ पोस्ट ऑफिस का एक बड़ा अधिकारी आ टपका। उसने मुझे ड्यूटी आवर्स में अनुपस्थित देख कर मेरे खिलाफ कारण बताओ नोटिस जारी कर दी थी।

इलाका सील किया जा चुका था

खैर, लंच टाइम पर वह सज्जन उठे और अपनी पुरानी मारुति 800 में मुझे बिठाल कर उस गेस्ट हाउस की ओर ले चले। वहां से अर्थात एयरपोर्ट से गेस्ट हाउस काफी दूर था। हम ऐसा समझते थे कि गेस्ट हाउस वाला इलाका सील होने के बावजूद भी उसके थोड़ी दूर तक शायद कार से जा सकेंगे और फिर वहां से पैदल च
लकर गेस्ट हाउस में चाबी वापस कर देंगे। परन्तु वहां जाने पर पता चला कि गेस्ट हाउस से कुछ एक किलोमीटर दूर से ही वह इलाका सील किया जा चुका था और उसमें कोई कार नहीं जा सकती थी। दूरी इतनी ज्यादा थी कि इतना पैदल चलना भी मेरे लिए सम्भव नहीं था।
इस कारण हम लोग वापस लौटने लगे। लौटते पर रास्ते में जेएनयू के पास से जब गुजर रहे थे, तब मुझे याद आया कि जेएनयू में मेरे एक मित्र प्रोफेसर पी.के. पांडे रहते हैं। मैंने उनको  जाकर वह चाबी दे दी और कहा कि शाम तक जब उस इलाके की सीलबंदी समाप्त हो जाए, तब यह चाबी उस गेस्ट हाउस में जा कर वापस कर दें या करवा दें।
इस पूरे कार्य में पोस्ट ऑफिस के जो सज्जन मेरी मदद कर रहे थे उनका नाम था  एम. एल. दत्ता। जेएनयू में चाबी वापस करने के बाद दत्ता साहब ने मुझे पोस्ट ऑफिस की सब्सिडाइज्ड कैंटीन में लंच कराया और खुद भी लंच किया। चाय भी पिलाई। शाम तक मैं उनके साथ रहा। और फिर शाम की फ्लाइट पकड़ कर लखनऊ आ गया।

दिल्ली कब आ रहे हैं

दत्ता साहब की निस्वार्थ सेवा की कहानी यहीं खत्म नहीं हुई। एक बार फिर मैं दिल्ली में किसी सरकारी काम से जाने को था, कि अचानक दत्ता साहब का मेरे पास फोन आ गया। उन्होंने मुझसे पूछा- आप दिल्ली कब आ रहे हैं। मैंने बताया- मैं आज ही शाम को दिल्ली पहुंचूंगा। मैंने उन्हें बताया कि इस बार मेरी आपसे भेंट नहीं हो पाएगी। क्योंकि मेरी फ्लाइट टर्मिनल-3 पर पहुंचेगी और आपका पोस्ट ऑफिस टर्मिनल-1 पर है। दत्ता साहब ने मुझसे कहा कि मैं टर्मिनल-3 पर आपसे मिलने आऊंगा। मैंने उन्हें मना भी किया। परन्तु वे नहीं माने।  मेरी फ्लाइट लगभग 6:00 बजे शाम को टर्मिनल-3 पर पहुंची, तो वहां वह मुझसे मिलने आए। और फिर उन्होंने अपनी कार से मुझे वहाँ छोड़ा, जहां मुझे रुकना था।
रास्ते में मैंने उनकी शर्ट की ऊपर वाली जेब में 500 रुपए का एक नोट डाल दिया। और उनसे कहा कि भारत सरकार मुझे आने-जाने का किराया देती है। टैक्सी का किराया भी देती है। मेरे कारण आपका भी पेट्रोल खर्च हो रहा है। इस कारण मैंने यह 500 रुपए आपको दिए हैं। परन्तु दत्ता साहब ने रुपए लेने से बिल्कुल साफ इनकार कर दिया। वह बोले कि अगर आप रुपए देना ही चाहते हैं, तो जिस मन्दिर में मैं जाता हूं, वहां आप चढ़ा दीजिएगा। मैंने उनसे कहा कि आप ही चढ़ा दीजिएगा। तो वह बोले- नहीं, नहीं यह पुण्य कार्य आप अपने हाथ से ही करें।
अगले दिन शाम को वह मुझसे मिलने आए और मुझे उस मन्दिर में ले गए और मैंने वहां 500 रुपए चढ़ा दिए।
इसके बाद मेरे उनके सम्बन्ध कुछ ऐसे हो गए और उनका प्रेम भी इतना ज्यादा था कि मैं जब कभी दिल्ली जाता, तो वह मुझसे मिलने अवश्य आते थे। मैं उनके साथ उस मन्दिर में फिर कई बार गया।

मैं बहुत परेशानी में था

एक बार मैंने दत्ता साहब से कहा कि मैं आज तक कभी गुरुद्वारा रकाबगंज नहीं गया हूं। वह बोले – मैं आपको ले चलूंगा। फिर वह मुझे उस गुरुद्वारे में भी ले गए। एक बार दत्ता साहब के किसी रिश्तेदार के यहां शादी थी। वह जबरदस्ती मुझे उस शादी में भी ले गए। मैं उनके रिश्तेदार को जनता भी नहीं था। वहां मुझे सम्मान के तौर पर एक किलो मिठाई का डिब्बा भी दिया गया।
दत्ता साहब के बारे में एक बात और बताने लायक है कि एक बार मैं कुछ कारणवश बहुत परेशानी में था। दत्ता साहब ने मुझे सुझाव दिया कि मैं उस मन्दिर में जाऊं और वहां जाकर प्रार्थना करूं। वह मुझे उस मन्दिर में ले गए और मैंने वहां प्रार्थना भी की। कुछ दिनों बाद मेरे कष्ट का निवारण भी हो गया।
इसके बाद अगली बार जब मैं दिल्ली गया, तो मैं कुछ धनराशि उस मन्दिर में चढ़ाना चाहता था। परन्तु मेरे पास उस मन्दिर तक जाने के लिए समय नहीं था। इसलिए दत्ता साहब जब मुझसे मिलने आए, तो मैंने उनसे कहा कि आप यह धनराशि मन्दिर में चढ़ा दीजिएगा, क्योंकि मेरे पास वहां जाने के लिए इस बार समय नहीं है। दत्ता साहब ने वह धनराशि लेने  से इनकार कर दिया और कहा कि यह कार्य मुझे स्वयं अपने हाथ से करना चाहिए।

बंटवारे के समय भाग कर आए थे

दत्ता साहब के कोई पुत्र या पुत्री नहीं था। वह पंजाबी थे। उनके पिताजी भारत के बंटवारे के समय बहुत विषम परिस्थितियों में पाकिस्तान से भाग कर आए थे। हालांकि  दत्ता साहब दिल्ली में कई वर्षों से रह रहे थे, परन्तु उन्होंने वहां कभी कोई मकान या फ्लैट नहीं खरीदा था। वह सरकारी आवास में रहते थे। जब वह पोस्ट ऑफिस की सेवा से रिटायर होने वाले थे, तब मैंने एक बार उनसे पूछा कि रिटायरमेंट के बाद आप कहां रहेंगे, क्योंकि तब कुछ माह बाद सरकारी आवास तो आपको खाली करना होगा। वह बोले कि मैं अपनी बहन के पास इन्दौर में जा कर रहूंगा।

दुःखद व्हाट्सएप मैसेज

फिर 30 सितम्बर 2020 को मेरे पास एक  दुःखद व्हाट्सएप मैसेज आया कि दत्ता साहब अब नहीं रहे और उनका उठाला 2 अक्टूबर 2020 को दिल्ली में सरोजनी नगर के एक मन्दिर में होगा। यह दु:खद समाचार मैं आज तक भूल नहीं पाया हूं। उस दु:खद व्हाट्सएप मैसेज से पता चला कि दत्ता साहब का पूरा नाम श्री मदन लाल दत्ता था। उनको हार्टअटैक पड़ा था। बहुत थोड़े  दिन अस्पताल में रहे। फिर इस दुनिया से कूच कर गए। वह मई 2020 में पोस्ट ऑफिस की अपनी नौकरी से रिटायर हुए थे और लगभग चार महीने बाद वह चले गए।
दत्ता साहब की पत्नी अब अपनी बहन के पास दिल्ली में रहती हैं। दत्ता साहब जैसे व्यक्ति से मेरी भेंट होना एक प्रकार से मेरे ऊपर ईश्वरीय कृपा ही थी।
(लेखक झारखण्ड केंद्रीय विश्वविद्यालय के सेवानिवृत्त प्रोफ़ेसर हैं)