प्रदीप सिंह ।
भारतीय मूल के ऋषि सुनक के रूप में इंग्लैंड को छह साल में पांचवां प्रधानमंत्री मिल गया। क्या इस परिघटना को इस रूप में देखा जाना चाहिए कि ब्रिटेन में नस्ल कोई मुद्दा नहीं रह गया है या अल्पसंख्यक के प्रति संवेदना परिपक्व हो गई है या फिर देश ने विविधता को स्वीकार कर लिया है? इनमें से सभी अटकलों पर नए प्रधानमंत्री ने यह कहकर खुद ही विराम लगा दिया कि उनके प्रधानमंत्री चुने जाने में उनकी नस्ल की कोई प्रासंगिकता नहीं है। उन्हें इसलिए चुना गया है कि उनमें समस्याओं को सुलझाने की क्षमता है।
ऋषि सुनक के प्रधानमंत्री बनने की खबर में कोई परिघटना देखने से पहले इस तथ्य को ध्यान में रखना चाहिए कि उन्हें ब्रिटेन की जनता ने नहीं चुना है। एक परिस्थिति विशेष में वह एक विशेषज्ञ और उम्मीद की तरह उपलब्ध थे और कंजरवेटिव पार्टी के सांसदों के बहुमत ने उन्हें चुनने का फैसला किया। सांसदों में भी वह सर्वसम्मति से नहीं चुने गए। बोरिस जानसन ने फिर से प्रधानमंत्री बनने की दौड़ में शामिल होने से मना कर दिया और दूसरी उम्मीदवार पेनी मार्डंट ने नाम वापस ले लिया, तभी सुनक प्रधानमंत्री बन सके। सिर्फ डेढ़ महीने पहले जब मतदाता मंडल में सांसदों के अलावा लोग भी थे, तो सुनक चुनाव हार गए थे। फिर इस डेढ़ महीने में ऐसा क्या बदल गया?
उल्टा पड़ गया दांव
ऋषि सुनक की नस्ल का उनके चुनाव से कोई सीधा संबंध नहीं है। न ही यह ब्रिटेन के नस्लवाद या उपनिवेशवाद से मुक्त होने का प्रमाण है। इसमें सामाजिक विविधता को स्वीकार करने या अल्पसंख्यक समुदाय को सशक्त करने का भी संदेश नहीं है, पर भारत के कुछ नेता और बुद्धिजीवियों को लगा कि यह अपने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर हमले का सुअवसर है। सीधे सवाल दाग दिया गया कि क्या कभी भारत में ऐसा हो सकता है? क्या कोई अल्पसंख्यक प्रधानमंत्री बन सकता है? लगा कि बात साफ नहीं हुई तो सीधे पूछ लिया कि क्या मुसलमान प्रधानमंत्री बन सकता है?
इस उतावलेपन ने सवाल करने वालों की ही कलई खोल खोल दी। जिस देश की संस्कृति का मूल ही विविधता और सर्वसमावेशी हो, जो वसुधैव कुटुंबकम् में यकीन करता हो, उसे भला किसी और के सामने कुछ साबित करने की जरूरत क्यों है? कुछ नेताओं ने अपनी ही पार्टी और सरकार के किए पर पानी फेर दिया। जिस देश में चार राष्ट्रपति, प्रधान न्यायाधीश, सेना प्रमुख, मुख्य चुनाव आयुक्त और एक प्रधानमंत्री अल्पसंख्यक समुदाय से रहे हों, उस पर सवाल उठाकर साबित क्या करना चाहते हैं? ऐसा बोलने वाले पी. चिदंबरम और शशि थरूर को लगा था कि सरदार से इनाम मिलेगा, लेकिन फटकार ही मिली।
आपको याद होगा कि बराक ओबामा के अमेरिका का राष्ट्रपति बनने पर भी ऐसे ही दावे-घोषणाएं की गई थीं। ओबामा तो जनता के वोट से राष्ट्रपति चुने गए थे, पर बाद में क्या हुआ? क्या अमेरिकी समाज की नस्लीय समस्याएं खत्म हो गईं। खत्म छोड़िए, क्या कोई बदलाव भी आया? तो जिस बात का या जिस कथित उपलब्धि का दावा खुद इंग्लैंड नहीं कर रहा, उसका दावा लगातार राजनीति के हाशिये पर धकेले जा रहे कुछ लोग कर रहे हैं, पर उनका दांव उलटा पड़ गया है।
हिंदू धरोहर
प्रधानमंत्री के रूप में सुनक ने पहले भाषण में या उससे पहले अपने भारतीय मूल का होने का जिक्र तक नहीं किया। सबसे अहम बात यह है कि उन्होंने अपनी हिंदू धरोहर की बात जरूर की। साथ ही भारतीय माता-पिता के दिए संस्कारों का भी उल्लेख किया। मतलब साफ है कि अपनी सनातन संस्कृति एवं सभ्यता उन्होंने छोड़ी नहीं। सुनक ब्रिटेन में ही पैदा हुए और वहीं पले-बढ़े। वह पूरी तरह बर्तानवी हैं, पर संस्कार से हिंदू हैं। उन्होंने ब्रिटेन में जन्म लेने और शिक्षा-दीक्षा के बाद भी अपना धर्म नहीं छोड़ा। मंदिर जाना, पूजा-पाठ करना, त्योहार मनाना या गौसेवा करना, उसे कभी छिपाया नहीं। पहली बार सांसद बने तो बाइबल पर नहीं गीता पर हाथ रखकर शपथ ली। वित्त मंत्री के रूप में दफ्तर में दीपावली पर दीया जलाया। तात्पर्य यह है कि अपने देसी अंग्रेजों और कथित सेक्युलरिस्टों की तरह उन्हें हिंदू होने पर शर्म नहीं आती। हिंदुत्व के प्रति उनका गर्व का यह भाव सबसे बड़ा संदेश देता है।
सुनक इतिहास के एक ऐसे कालखंड में उपनिवेशवादी ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बने हैं, जब अमेरिका के प्रतिष्ठित शिक्षण और शोध संस्थानों से ‘डिसमेंटल हिंदुत्व’ अभियान चलाया जा रहा है। इसमें यूरोप के देशों और भारत की तमाम लेफ्ट-लिबरल बिरादरी सहित देश की सबसे पुरानी पार्टी शामिल है। विडंबना देखिए कि न्यूयार्क के मेयर कह रहे हैं कि घृणा और हिंसा से बचने के लिए भगवान श्रीराम को हृदय में आत्मसात कीजिए और लोकसभा अध्यक्ष रहे शिवराज पाटिल दुनिया को बता रहे हैं कि भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में अर्जुन को जिहाद का पाठ पढ़ाया था। पाटिल जैसे लोग न तो देश को समझते हैं और न ही अपनी संस्कृति-सभ्यता को।
कुछ लोगों के दिल में दर्द
सुनक के ब्रिटेन का प्रधानमंत्री बनने पर कुछ लोगों के दिल में दर्द उठ रहा है कि कोई मुसलमान भारत का प्रधानमंत्री क्यों नहीं बन सकता? देश का बहुसंख्यक हिंदू समाज इतना उदार क्यों नहीं हो सकता? हिंदू समाज की उदारता ही है कि इस देश ने एक नहीं दो-दो मुस्लिम देश बनने दिए। इस दर्द से पीड़ित लोगों ने कभी नहीं पूछा कि देश के एकमात्र मुस्लिम बहुल आबादी वाले राज्य जम्मू-कश्मीर में कोई गैर-मुसलमान मुख्यमंत्री क्यों नहीं बन सकता? हर राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय घटना में मुस्लिम एजेंडा खोजना कुछ लोगों का पूर्णकालिक व्यवसाय है, पर जब अपना अवसर आता है तो एजेंडा भूल जाते हैं।
चिदंबरम के पास इस प्रश्न का क्या उत्तर है कि 75 साल में कांग्रेस ने किसी मुसलमान को पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष क्यों नहीं बनाया? देश में 58 साल कांग्रेस या कांग्रेस के समर्थन वाली सरकार रही। उस समय प्रधानमंत्री पद के लिए किसी मुसलमान की याद क्यों नहीं आई? वास्तव में चिंता मुसलमान की नहीं और अल्पसंख्यकों की तो कतई नहीं। चिंता सिर्फ और सिर्फ अपने वोट बैंक की है। वह सुनक के बहाने सधे या गीता को जिहाद की पाठशाला बताकर।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं। आलेख ‘दैनिक जागरण’ से साभार)